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________________ ५८ : जैन तत्त्वकलिका तीर्थंकर कहाँ-कहाँ और कब होते हैं ? जिसमें आप और हम रहते हैं, वह भरतक्षत्र कहलाता है । यह 'जम्बूद्वीप' के दक्षिण भाग में है । इसके उत्तर भाग में ऐरवतक्षत्र और मध्यभाग में महाविदेह क्षेत्र है । महाविदेहक्ष ेत्र में लगातार तीर्थंकर होते रहते हैं जबकि भरत - ऐरवत क्षेत्र में प्रत्येक उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी काल में चौबीस चौबीस तीर्थंकर होते हैं । भरतक्षेत्र की वर्तमानकालीन चौबीसी का संक्षिप्त परिचय जम्बूद्वीपान्तर्गत भरतक्ष ेत्र में वर्तमानकाल में हुए चौबीस तीर्थंकरों IT संक्षिप्त परिचय यहाँ हम दे रहे हैं, जिससे पाठक तीर्थंकर देवों के जीवन At aणकारिणी संक्षिप्त झाँकी पा सकें । इसके अतिरिक्त तीर्थंकरदेवों के सभी नाम गुणनिष्पन्न होते हैं । भव्यप्राणी इन नामों का अवलम्बन लेकर इन नामों के अनुसार गुणों के प्रति अनुराग रखते हुए, उन गुणों को हृदय में स्थापित करते हैं तथा गुणानुसरण करके अपनी आत्मा को पवित्र बनाते हैं । चौबीस तीर्थंकरों का क्रमशः परिचय इस प्रकार है (१) श्री ऋषभदेवजी भूतकाल की, अर्थात् — इस अवसर्पिणीकाल के पहले वाली चौबीसी के अन्तिम ( चौबीसवें तीर्थंकर के निर्वाण के बाद अठारह कोटा - कोटी सागरोपम बोत जाने पर इक्ष्वाकुभूमि ( ईख के खेत के किनारे), नाभिकुलकर की पत्नी मरुदेवी की कुक्षि से वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेवजी (आदिनाथजी ) का जन्म हुआ 1 भगवान् के दोनों उरुओं में वृषभ (बैल) का लक्षण था, तथा भगवान् की माता ने जो १४ स्वप्न देखे थे, उनमें प्रथम स्वप्न 'वृषभ' का ही देखा था । इसलिए भगवान् का गुणनिष्पन्न शुभ नाम ऋषभदेव या वृषभनाथ रखा गया था। इनके शरीर का वर्ण स्वर्ण के समान पीला था । इनका लक्षण (लाँछन या चिह्न) ' वृषभ का था । इनके शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष की, और आयु ८४ लाख पूर्व की थी । ८३ लाख पूर्व तक गृहस्थावस्था १ २ १ यह लक्षण या चिह्न तीर्थंकरों के पैर में और किसी-किसी के कथनानुसार वक्षस्थल में होता है । २ ७० लाख ५६ हजार वर्ष को १ करोड़ से गुणा करने पर ७०५६०००००००००० वर्षों का एक पूर्व होता है ।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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