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अनित्य एवं दुःखमय संसार में मत फंसो ७३
परिभ्रमण करता रहता है । जहाँ भी जाता हैं, वहाँ कुछ समझदारी पाकर अज्ञान और मोहवश अपने उसी ससार में आसक्त हो जाता है; परन्तु एक दिन उसके सुख का महल ताश के पत्तों की तरह बिखर जाता है और वह सब कुछ वहीं छोड़कर अपनी पुण्य-पापरूपी पूँजी के अनुसार आगे चलने के लिए बाध्य हो जाता है ।
संसार अरण्य में अज्ञानी जीवों की स्थिति प्रश्न होता है, क्या यह संसाररूपी दीर्घं अरण्य कभी पार भी किया जा सकता है या इसी में स्थायीरूप से जीव को रहना पड़ता है ? अगर संसाररूपी लम्बे चौड़े वन को पार किया जा सकता है । तो कैसे ? और जो जीव इसे नहीं पार कर पाता, उसका क्या कारण है ? इन प्रश्नों के सन्दर्भ अर्हतषि हरिगिरि आगे कहते हैं
इमं च णं. सडण- पडण - विकिरण-विद्ध' सणधम्मं अणेगजोगक्खे म समायुत्तं जीवस अतालुके कि संसार-निर्घोढ करेति, संसारणिव्वेड्ढि करेत्ता सिवमचल....
. चिट्ठिस्सामित्ति ।
'यह संसार ( में कर्मानुसार प्राप्त होने वाले शरीरादि सब पदार्थ ) सड़न -पड़न विकिरण और विध्वंसन धर्म (स्वभाव) वाला है । अनेक योगक्षेम और समत्व से रहित जीव के लिए यह दुस्तरणीय (कठिनता से पार किया जाने वाला) है । ऐसा जीव (संसार को घटाने के बजाय ) संसार को वृद्धि करता है । संसार से निर्वेद (विरक्ति) पाकर ( अथवा मोक्षाभिलाषा करके) ही मैं उस शिव, अचल आदि पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त शाश्वत स्थान को प्राप्त करूँगा ।'
इस संसार के सभी जड़ पदार्थ, यहाँ तक कि शरीर, इन्द्रियाँ तथा माता-पिता, भाई बहन आदि के सम्बन्ध भी अनित्य हैं । वे सड़ते हैं, गलते हैं, ध्वंस होते हैं, नष्ट हो जाते हैं । एक आत्मा या आत्मा के निजी गुण शाश्वत हैं नित्य हैं । अतः इस तत्व को न समझकर जो शारीरादि या माता-पिता आदि या धन, मकान आदि अनित्य, नाशवान् एवं अनियत पदार्थों से सुख- सामग्री जुटाने और उसकी रक्षा करने के प्रपंच में लगा रहता है, आत्मा के लिए अप्राप्त हुए (मोक्ष) को प्राप्त करने तथा जो प्राप्त ( आत्मगुण) है उसका रक्षण ( योग-क्षेम ) करने में नहीं लगा है, जिसमें विषय सुखों के प्रति अनासक्ति तथा कषायों से विरक्ति (समता) नहीं आई हैं, वह संसार को घटा नहीं पाता है । संसार का अन्त कर पाना तो उसके लिए बहुत दूर की बात है; उलटे, वह संसार की वृद्धि ही करता है ।