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७४ | अमरदीप
अथवा हरिगिरिऋषि के पूर्वोक्त वक्तव्य का एक आशय यह भी हो सकता है कि जो साधक किसी पंथ या वेश को स्वीकार करता है, शिष्यशिष्या, भक्त-भक्ता तथा विचरण क्षेत्र की आसक्ति में पड़ा है, साम्प्रदायिकता फैलाता है, प्रसिद्धि, आडम्बर एवं प्रदर्शन के लिए तप क्रियाकाण्ड आदि करता है, ऐसा व्यक्ति समत्व से रहित है, उसके कषाय की मात्रा बढ़ी हुई है; ऐसी स्थिति में सांसारिक प्रपंच में फँसा हुआ साधक यदि ससार से मुक्त होने और अचल आदि विशेषणों से युक्त सिद्धि स्थान को प्राप्त कर लेने का दावा करे तो वह निरर्थक है ।
संसार का अन्त करने का संकल्प
इसलिए हरिगिरि अर्हतर्षि संसार का स्वरूप भली भाँति जान कर इसका अन्त करने के लिए अपना दृढ़ संकल्प प्रगट करते हैं
तम्हा अधुवं असासतमिणं संसारे सव्वजीवाणं संसतीकरणमिति णच्चा णाणदंसण चरिताणि सेविस्सामि, णाण-दंसण चरिताणि सेवित्ता अणादीयं जाव कंतारं सिवमचल० जाव ठाणं अब्भुवगते चिट्ठिस्सामि ।
अतः अध्रुव, अशाश्वत संसार सभी जीवों के लिए आसक्ति पैदा करने वाला है, ( और आसक्ति ही दुःख का मूल है), यह जानकर मैं ज्ञान-दर्शनचारित्र की आराधना - साधना करूंगा और इस साधना के फलस्वरूप अनादि यावत् संसाररूपी अरण्य को पार करके शिव, अचल यावत् शाश्वत स्थान
प्राप्त करूँगा ।
सदैव सर्वत्र शुद्ध धर्म को साथ रखो
संसार से मुक्त होने के लिए सर्वत्र और सर्वदा धर्म को साथ रखने का निर्देश देते हुए कहते हैं
कंतारे वारिमज्झे वा, दित्ते वा अग्गिसंभवे । तमसि वाडधाणे वा सया धम्मो जिणाहिओ ॥ १ ॥ धरणी सुलहा चेव गुरु भेसज्जमेव वा । सद्धमो सध्व जीवाणं णिच्च लोए हितकरो ||२||
'साधक को अरण्य में, जल में, अग्निज्वाला में, अन्धकार में अथवा गाँव या नगर में सर्वज्ञजिनेन्द्र - कथित धर्म को सर्वत्र एवं सदैव साथ रखना चाहिए ॥१॥
'सर्वंसहा पृथ्वी, गुरु और औषधियाँ लोक में प्राणिमात्र के लिए हितकर हैं, इसी प्रकार सद्धर्म भी समस्त प्राणियों के लिए सदैव हितकर है' ॥२॥ साधक की साधना की धारा नदी की धारा की तरह समान रूप से बहनी चाहिए। ऐसा न हो कि जंगल के वीरान प्रदेशों में हो, तब साधना