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अनित्य एवं दुःखमय संसार में मत फंसो ७५ निराली हो, अन्धकार, जलस्थान, अग्निस्थान या ग्राम में भिन्न-भिन्न रूप की हो. तथा नगर में कुछ और ही रूप को साधना हो। जैसे-कोई साधक शहर में जाए और श्रावकों के बीच में हो, तब साधना फूक-फूक कर तीव्र कर दी जाए और ग्रामों के सरल अबोध ग्रामीणों के भोलेपन का लाभ उठाकर अपनी साधना का स्तर नीचा कर दे, वहाँ अपनी तर्ज बदल दे।।
दशवैकालिकसूत्र में साधक को महाव्रतों की साधना में सर्वत्र सर्वदा एकरूपता के लिए जोर देते हुए कहा गया है
___'से गामे वा नगरे वा रणे वा एगओ वा परिसागओवा सुत्त वा जागरमाणे वा........।
'साधु- साध्वी ग्राम में हो, नगर में हो, जंगल में हो, या विशाल परिषद में हो, सोया हो या जगता हो, सदैव सर्वत्र उसकी चारित्रधर्म की साधना समान रूप से प्रवाहित हो ।'
अर्हतर्षि के कथन का तात्पर्य यह भी हो सकता है कि साधक सूने जंगल में छोड़ दिया गया हो, सागर की जलधारा में फेंक दिया गया हो, या आग में झौंक दिया गया हो, अथवा अंधेरी कोठरी के घोर अन्धकार में डाल दिया गया हो, अथवा चारों ओर बाड़ से घेर कर बंद कर दिया गया हो, वह सर्वत्र सदैव जिनोक्त धर्म पर दृढ़ रहे, धर्म से जरा भी विचलित, स्खलित या च्युत न हो, क्योंकि जैसे रोगग्रस्त मानव के लिए औषधि जीवनदायिनी है, संसारसागर से तारने के लिए गुरु महान् उपकारी हैं, तथा सर्वसहा पृथ्वी किसान से लेकर राजा तक सबके लिए हितकारिणी है, वैसे ही जीवन में प्रकाश की प्रेरणा देने वाला धर्म हितावह है। धर्म की परिभाषा करते हुए महान् आचार्यों ने कहा है -
'दुर्गतौ प्रपन्ततमात्मानं धारययीति धर्मः' जो दुर्गति में पड़ती हुई आत्मा को उठाए, वही धर्म है। जो पतन की ओर जाते हुए व्यक्ति को बचाकर उत्थान की ओर ले जाए। आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में धर्म का लक्षण इस प्रकार किया है
संसारदु.खतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सूखे ।
सद्दृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । २.३॥ 'जो संसार के दुःखों से प्राणियों को बचाकर उत्तम (स्वाधीन-आत्म सुख) में पहुँचाता है, वह धर्म है-सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र को ही धर्म धुरंधरों ने धर्म कहा है।'
कहने का मतलब यह है कि जीव का गिरना ही संसार है और