________________
७६
अमरदीप
उठना मोक्ष है। मनुष्य जन्म-मरण रूप संसार के गड्ढे में गिरकर नाना दुःख उठाता है, धर्म उसे संसारपरम्परावर्द्धक क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वष, मोह आदि विकारों के गर्त में गिरने से बचाता है और उनसे ऊपर उठाकर कर्मों के बन्धन काटता है, मोक्ष पहुँचाता है। धर्म ही कह तत्व है, जो मनुष्य को प्रत्येक क्षेत्र में समभाव से, शान्ति से और अहिंसा, संयम, तप आदि से संसार से अलिप्त-अनासक्त रहना और ऊपर उठना एवं मोक्ष को ओर गति करना सिखाता है । आत्मिक सुख का मूल यदि कोई है तो धर्म ही है। संसार के सुख दुःख क्षणिक हैं
संसार के सुख-दुःख किस प्रकार के क्षणिक हैं ? इससे ऊपर उठने की सूचना देते हुए अर्हतर्षि कहते हैं
सिग्यवटि-समायुत्ता, रधचक्के जहा अरा।।
फडता वल्लिच्छेया वा सुहदुक्ख सरीरिणो ॥३॥ जैसे-रथ के पहिये में लगे हुए आरे शीघ्र घूमते हैं, एक के बाद एक बदलते रहते हैं, अथवा जैसे लता में हुआ छिद्र उसे फाड़ डालता है, इसी प्रकार संसार में देहधारियों के सुख-दुःख हैं ॥३॥
संसार के सभी प्राणी सुख चाहते हैं, दुःख कोई भी नहीं चाहता। परन्तु आप जानते हैं कि संसार का सुख कैसा है ? वह रथ के पहिये में लगे. हुए आरों की तरह परिवर्तित होता रहता है, कभी सुख आता है तो कभी दुःख । वस्तुतः सांसारिक सुख एक प्रकार का दुःख है, सुखाभास है। वह थोड़े क्षण रहता है, फिर दुःख आ जाता है। मनुष्य मिठाई खाने में सुख मानता है, किन्तु उसी मिठाई से डायविटीज (सुगर की बीमारी) हो जाए तो उसे छूएगा भी नहीं । उसी मिठाई को खाना दुःखरूप हो जाएगा। पत्नीपुत्रों को सुखदायक मानता है, किन्तु पत्नी का वियोग हो जाए तो दुःख मानेगा अथवा वह कुष्ट रोग जैसी भयंकर व्याधि से पीड़ित हो जाए तो वह उसका स्पर्श करना भी दुःखरूप मानेगा । पुत्र उद्दण्ड, अविनीत और उड़ाऊ हो जाए तो उस पुत्र को पिता दुःखरूप मानेगा।
हाँ तो संसार के सुख और दुःख क्षणिक हैं, पदार्थनिष्ठ हैं, पराधीन हैं, परोपाधिक हैं; जबकि मोक्ष का सुख स्वाधीन है। सांसारिक सुख के भरोसे रहना, अपने आपको धोखा देना है दुर्गति के दुःखों में डालना है। नानकदेव ने एक बार कहा था
नानक ! दुखिया सब संसार । सो सुखिया जिस नाम आधार ।।