________________
अनित्य एवं दुःखमय संसार में मत फंसो ७७ नानकदेव जी का महान संकेत तो यह है कि इस अशाश्वत संसार में कहीं भी सुख नहीं है । धनवान, निर्धन, बलवान् और बुद्धिमान और मंदबुद्धि दोनों ही दुःखी हैं। जिसके जीवन में वोतराग परमात्मा का नाम है, या उनके धर्म का स्मरण है, वही सुखी है। अज्ञानी जीव सांसारिक सुख का स्वागत करता है, परन्तु उस सुख के पीछे छिपे हुए दु.ख की ओर उसकी दृष्टि जाती ही नहीं है । इस संसार में सुख अकेला नहीं आता, अपने साथ अनेक दुःखों को लाता है। धन-पत्नी, पुत्र, भवन, वस्त्र आदि पदार्थों में सांसारिक अज्ञानी जीव सुख मानता है। परन्तु वही तस्करी से प्राप्त धन कारागर के सीखचों में बंद करा देता है, बेइज्जती करा देता है, भाईभाइयों में झगड़ा पैदा करा देता है। भवन, कुटुम्बीजन आदि भी नाना चिन्ताओं के कारण बनते हैं, इसलिए दुःखदायक है। सुख की छाया में दुःख विनाम पाया हुआ है । ऋषि के कहने का फलितार्थ यह है कि सांसारिक सुखों के पीछे मतं भागो । छाया के पोछे दौड़ने से वह आगे से आगे भागती जाती है, पकड़ में नहीं आतो । इसी तरह सांसारिक सुख भी पकड़ में नहीं आते । इन्हें छोड़ो और शाश्वत एवं स्वाधीन मोक्षसुख को प्राप्त करने में पुरुषार्थ करो। मोक्ष की ओर गति धर्माचरण से होती है, जो मोक्षसुख के अंशरूप आत्मिकसुख की प्राप्ति कराता है।
संसार और उसका मूल संसार क्या है ? कैसा है ? संसार-परम्परा का मूल क्या है ? इस गुत्थी को सुलझाने के लिए अर्हतर्षि हरिगिरि कहते हैं
संसारे सव्व जीवाणं गेही संपरियत्तते । उदुम्बक तरूणं वा वसणुस्सवकारणं ।।४।। वहि रवि ससंकं च, सागरं सरियं तहा । इंदज्झयं अणीयं च, सज्जमेहं च चितए ॥५॥ जोव्वणं रूवसंपत्ति सोभाग्गं धण-संपदं । जीवित वा वि जोत्रा गां, जल बुब्बुय-सन्निभं ।।६।। देविदा समहिड्ढिया ताणविंदा य विस्सुता ।।
रिया जे य विक्कता. संखयं विवसा गता ।।७।। 'संसार के सभी जीव गृद्धि-आसक्ति को लेकर परिभ्रमण करते हैं । जैसे उदुम्बर वृक्षों का प्रसत व्यसनोत्सव का अर्थात्-मदनोत्सवकामविकारोत्तेजक उत्सव का कारण बनता है, इसी प्रकार आसक्ति भी संसार-परम्परा का मूल कारण होती हैं ॥४॥