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________________ ७२ अमरदीप तथापि (मैंने जाना कि) मेरा जीव इहलौकिक (सांसारिक) सुखों का उत्पादक (होने से), परलोक में दुःखोत्पादन करता है । वह (इन सांसारिक क्षणिक सुखों को पाने के लिए) इस अनियत, अध्र व अनित्य और अशाश्वत संसार में आसक्त, अनुरक्त, गृद् एव मोहित होता है, विषयासक्त होता है और व्याघात को प्राप्त होता है। सचमुच संसार ऐसा ही है। कई लोगों का कहना है कि जो नारक है, वह नारक ही रहता है, तिर्यञ्च तिर्यञ्च ही, तथा मनुष्य और देवं सदैव मनुष्य और देव ही रहते हैं, यह कथन युक्तिसंगत नहीं है । जीव अपने अपने कर्मानुसार विविध गतियों और योनियों में परिभ्रमण करते हैं। जो आज नारक हैं, वे कभी नारकपर्याय को छोड़कर पशुयोनि पाते हैं, जो तिर्यञ्च हैं, वे कभी तिर्यञ्च-पर्याय को छोड़कर मनुष्य और कभी देव बनते हैं, अथवा तिर्यञ्च पर्याय में पृथक्-पृथक् योनियों में जन्म-मरण करते रहते हैं । जो मनुष्य हैं, वे मनुष्यपर्याय को छोड़कर कभी नारक, कभी तिर्यञ्च और कभी देव तथा पुनः मनुष्य बनते हैं। देव भी देवपर्याय में स्थायी नहीं रहते । जब उनका लम्बा आयुष्य समाप्त हो जाता है, तब वे वहाँ से च्यव कर अपने कर्मानुसार दूसरी गति या योनि में जाते हैं। ___ अज्ञानवश जीव जहाँ भी जाता है, वहाँ इस संसार को नित्य एवं शाश्वत समझकर उसी के वैषयिक सुखों में फंस जाता है, देवलोक में या मनुष्यलोक में वह जरा समझदार होता है, परन्तु वहाँ भी देवत्व या मनुष्यत्व को स्थायी पर्याय मानकर वैषयिक सुखों में लुब्ध हो जाता है, इसी कारण परलोक में जाता है, तब पूर्व कर्मानुसार दुःख पाता है। . मतलब यह है कि चार गतियों में बार-बार जन्म-मरण के रूप में परिभ्रमण करना ही संसार है। यह संसार का स्थूलस्वरूप है । जीव के अपने-अपने कर्मानुसार उसे विविध गतियाँ और योनियाँ मिलती है । इस दृष्टि से संसार शाश्वत तथा नित्य नहीं, किन्तु अनित्य और अशाश्वत हैं। मगर यह भुलक्कड़ जीव इस संसार में जहाँ भी जाता है, वहाँ आत्मविकास, आत्मसाधना या आत्मगुणों की प्राप्ति अथवा आत्मशुद्धि करने का जो वास्तविक उद्देश्य है, उसे भूल जाता है, और शरीर एवं शरीर से सम्बन्धित सजीवनिर्जीव पदार्थों में आसक्त हो जाता है, वैषयिक सुख भोगों में लिप्त हो जाता है, वह वर्तमान के क्षणिक सुखों को हो शाश्वत सुख मानकर उन्हें बटोरने में लग जाता है, फलतः सुखभोग के वे अल्पक्षण परलोक के अनन्त दुःखों को जन्म देते हैं। यह सिलसिला एक जन्म तक ही सीमित नहीं रहता अनन्त अनन्त जन्मों तक आत्मा इसी तरह अज्ञानवश चातुर्गतिक संसार में
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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