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________________ अनित्य एवं दुःखमय संसार में फंसो ७१ सव्वमिणं पुरा भव्वं, इदाणि पुण अभव्वं; हरिगिरिणा अर इता इसिणा बुइतं । 'पहले ऐसा मालूम होता था कि यह दृश्यमान संसार अतीत में हमारी भवितव्यता (पूर्वकृत कर्म) के अनुरूप था, किन्तु वर्तमान भवितव्यतासापेक्ष नहीं है, अर्थात्-हमने अतीत में जो कुछ किया है, वर्तमान उसके अनुरूप है। किन्तु भविष्य हमारे वर्तमान पुरुषार्थ पर अवलम्बित है, हम जैसा कर्म करेगे, तदनुसार हमारा संसार बनेगा। इस प्रकार अर्हतर्षि हरिगिरि ने कहा। ___इसका तात्पर्य यह है कि बहुत-से दार्शनिक इस संसार को स्वप्न मानते हैं, बहुत-से इसका कोई अस्तित्व नहीं मानते हैं, कई दार्शनिक इसे माया या प्रकृतिजन्य मानते हैं। परन्तु युक्ति से ये सब मान्यताएँ खण्डित हो जाती हैं । हरिगिरि ऋषि के कहने का आशय यह है कि मैं पहले यह समझता था कि यह संसार शाश्वत है, इस (जन्म) से पूर्व भी संसार था, अब भी है, किन्तु बाद में मुझे बोध हुआ कि प्रवाहरूप से यह संसार अनादि होते हुए भी व्यक्ति रूप से क्षणस्थायी है, आशाश्वत है, परिवर्तनशील है । यही संसार का वास्तविक स्वरूप है । संसार का किसी एक शक्ति (ईश्वर आदि) ने निर्माण नहीं किया, परन्तु जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार इसमें आताजाता है। जड़-पदार्थों का संयोग जीव को अपने-अपने कर्मों के अनुरूप मिलता है। ___ संसार के इसी स्वरूप का विश्लेषण करते हुए ऋषि आगे कहते चयंति खलु भो य गैरइया रतियत्ता, तिरिक्खा तिरिक्खत्ता, मणुस्सा मणुस्सत्ता, देवा देवत्ता, अणुपरियति जीवा चाउरंत संतारकन्तारं कम्माणुगामिणो । तधा वि मे जीवे इधलोके सुहुप्पायए, परलोके दुहुप्पायए ( ? ), अणिए अधुवे अणितिए अणिच्चे असासते सज्जति रज्जति गिज्झ ते मुज्झति, अज्झोववज्जति विणिघातमावज्जति । . ___ अर्थात्-(मैंने देखा कि इस चतुर्गतिकरूप संसार में) नारक नारक पर्याय को, तिर्यञ्च तिर्यञ्चयोनि को, मनुष्य मनुष्यपर्याय को, और देव देव पर्याय को छोड़ते हैं । (अपने-अपने) कर्मानुसार जीव इस चातुरन्त (चार गति वाले) संसाररूपी अरण्य में परिभ्रमण करते रहते हैं।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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