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मृत्यु का रहस्य ६हं की गांठ को तोड़ने तथा अप्रशस्त लेश्या को छोड़कर सुखरूप मृत्यु प्राप्त करने हेतु रत्नत्रय की साधना अंगीकार करते हैं । इसके पश्चात् मृत्युंजयी बनने के लिए वे सूचित करते हैं-
" जाणं जाणिय दंसणेणं पासित्ता संजमेणं संजामिय तवेण अट्ठविहकम्मरयमलं विधुणित विसोहिय अणादीयं अनवदग्गं दोहमद्ध चाउरंत-संसार कांतारं वीतिवतित्ता सिवमयल मरुयमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तिय सिद्धिगति - णामधिज्जं ठाणं संपत्ते, अणागतद्ध सासतं कालं चिट्ठिस्सा मित्ति ।"
अर्थात् - 'ज्ञान से जानकर, दर्शन से देखकर और संयम से संयमित होकर तथा तप से अष्टविध कर्मरज रूप मल को नष्ट कर, आत्मा को विशुद्ध बनाऊँगा । जिससे अनादि-अनन्त दीर्घ पथ वाले चातुर्गतिक जन्ममरणरूप संसार को पार कर शिव, अचल, अरुज ( रोगरहित), अक्षय, अव्याबाध, पुनरागमन -निरपेक्ष, सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करूँगा और भविष्य में शाश्वत काल तक रहूँगा ।
यह है रामपुत्र- अर्हतर्षि का भव्य मनोरथ ! उन्होंने इसी मोक्ष मार्ग का अनुसरण करके खुशी से देह का त्याग किया और भव- परम्परा की श्रृंखला को तोड़कर शाश्वत शान्ति के पथिक बन गए।
वास्तव में जो मृत्यु का रहस्य जान लेता है, वह देह, गेह, शिष्य, सम्प्रदाय, पुस्तक, वस्त्र - पात्र आदि उपकरण एवं अपने विचरण क्षेत्र, अनुयायी भक्त आदि किसी पर भी ममत्व न रखकर राग-द्वेषरहित होकर मृत्यु पर विजय पा लेता है ।
आप भी इस मृत्यु-कला को जानिए और इसका अभ्यास कीजिए ।