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६८ अमरदीप
कि तुम्हारी मृत्यु बहुत ही निकट है। आज से आठवें दिन तुम्हें मौत को भेंटने के लिए तैयार रहना है ।"
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यह सुनते ही आगन्तुक बहुत घबरा गया । वह एकनाथजी को प्रणाम करके शीघ्र ही अपने घर पहुंचा। उसके सामने अब निरन्तर मौत नाचती हुई दिखाई दे रही थी । फिर वह अपने पड़ोसियों से मिला और अपने समस्त अपराधों के लिए क्षमा-याचना की । फिर गाँव भर में जिन-जिनसे झगड़ा हुआ था, उनसे भी माफी माँगी । फिर अपनी पत्नी एवं बच्चों से भी अपने कटु व्यवहार के लिए क्षमा माँगी । अपना कारोबार और पसारा समेटने लगा । मृत्यु की चिन्ता से व्याकुल होकर वह बीमार पड़ गया। पलंग पर लेटा था । आठवें दिन सन्त एकनाथ उसके घर पहुंचे। उन्होंने पूछा - "क्यों. भाई ! क्या हाल है ? तेरे ये आठ दिन कैसे बीते ? इन दिनों में तुमने कितने पाप किये, क्या-क्या खुराफात की ?"
"महाराज ! क्या बताऊँ ? मेरी आँखों के सामने तो मौत नाचती रही । पाप या खुराफात का विचार ही कैसे आता ? बल्कि मैंने याद करके सभी से अपने अपराधों के लिए क्षमा माँग ली ।"
एकनाथजी - "अब तो तुम्हें निश्चित, शान्त और निष्पाप जीवन का रहस्य समझ में आ गया न ? मृत्यु को प्रतिक्षण निरन्तर याद रखना ही निष्पाप, शान्त एवं निश्चित जीवन जीने का रहस्य है । अतः जब तक जीओ मृत्यु को प्रतिक्षण सामने रखते हुए सबसे मधुर व्यवहार करो, धर्माचरण करो, सेवा करो और परमात्मा को स्मरण करो ।"
मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाले मृत्युंजयी वीर मृत्यु के उपस्थित होने पर उत्कृष्ट समाधिमरणपूर्वक अपना शरीर छोड़कर सदा के लिए अजर-अमर हो जाते हैं । कहना चाहिए - मौत ने उन्हें नहीं मारा, उन्होंने मौत को ही मार दिया है ।
अन्तवृद्दशांग सूत्र में आपने गजसुकुमार मुनि के आदर्श मरण की कहानी सुनी होगी । सोमल ब्राह्मण द्वारा दिए गए मरणान्त उपसर्ग को उन्होंने समभावपूर्वक सहन किया। उन्होंने न तो अपने परिवार की चिन्ता की, न ही देह पर कोई राग किया, न ही सोमल ब्राह्मण परद्व ेष किया । उन्होने तो एकमात्र अपनी आत्मा में लीन होकर अपने शरीर को हँसते-हँसते प्रसन्न भाव से छोड़ और परमात्मपद प्राप्त किया । वे सदा के लिए जन्म-मरण से मुक्त हो
मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए
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यही आदर्श अर्हतषि रामपुत्र के समक्ष चमक रहा था । वे रागद्वेषादि