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६६ | अमरदीप
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ||
' जैसे मनुष्य पुराने जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्र पहनता है, वैसे ही यह देहधारी पुराने जीर्ण शरीर को त्याग कर अन्य नया शरीर धारण करता है ।'
मृत्यु कलामर्मज्ञ यह भी जानता है कि विशुद्ध आत्मा का न तो जन्म होता है, न मरण, किन्तु शरीरधारी जीव के शरीर परिवर्तन की अपेक्षा से शरीर का जन्म और मरण कहा जाता है । वह यह भी जानता है कि मृत्यु तो एक प्रकार की विश्रान्ति है, जो जीवनभर की प्रवृत्तियों की थकान के बाद आवश्यक है । वह एक प्रकार की महानिद्रा है । जैसे जीवन के बाद मृत्यु है, उसी प्रकार मृत्यु के बाद जीवन है । इसलिए वह मृत्यु से घबराता नहीं है, वह हंसी-खुशी से समाधिपूर्वक मृत्यु को स्वीकार करता है। उसके हृदय में कवि की यह वाणी गूँजती रहती है-
मरने से जग डरत है, मो मन बड़ा आनन्द । कब मरिहों, कब भेटिहों, पूरण परमानन्द ||
वास्तव में, जो अकाम (बाल) मरण से मरता है, उसे बार-बार जन्ममरण करना पड़ता है, उसका दुःख अवर्णनीय है । किन्तु जो सकाम (पण्डित - समाधि) मरण पूर्वक मरता है, उसका जन्म मरण से सदा के लिए छुटकारा होना सम्भव है, सुगति तो निश्चित ही है। कहा भी है
'सच्चस्स आणाए उवट्ठिओ मेहांवी मारं तर ' सत्य की आज्ञा में उद्यत मेधावी मृत्यु को तर जाता है ।
सुकरात निर्भीकतापूर्वक सत्य कहने एवं युवकों को सत्य समझाने में जरा भी नहीं हिचकिचाता था । सुकरात की सत्यवादिता से रुष्ट होकर एथेंस की राजसभा ने उस पर दो दोषारोपण किये और मृत्युदण्ड की सजा सुनाई । जब न्यायाधीश ने सुकरात के बयान लिए तो उसने कहा - 'मैंने ईश्वरीय- आज्ञा से अपने कर्त्तव्य का पालन किया । मुझे आप सत्य कहना छोड़ने को कहें तो मैं इसके लिए तैयार नहीं हूं । मृत्यु क्या है ? यह मैं नहीं जानता । वह अच्छी चीज भी हो सकती है । मैं उससे डरने वाला नहीं ।' इस पर एथेंस की राजसभा ने उसे विषपान की सजा दी; किन्तु वह मृत्यु से घबराया नहीं, प्रसन्नता से विष का पान कर लिया । वस्तुतः जिसका जीवन