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६४ अमरदीप
हे कौन्तेय ! अन्तिम समय में मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ, जिस-जिस प्रकार के अच्छे-बुरे कार्यों को स्मृतिपट पर लाता हुआ शरीर छोड़ता है, वह तदनुसार उन उन भावों ( विचारों) से वासित होकर उस उस गति को प्राप्त करता है ।
अतः बालमरण या दुःखरूपमरण का यही प्रमुख कारण है । इसी अर्हषि रामपुत्र इस मृत्यु के विषय में अपने पूर्वजीवन के अनुभवों को प्रकट करते हुए कहते हैं
इमस्स खलु ममाइयस्स असमाहियलेसस्स गंड-पलिघाइयस्स गंडबंधणपलियस्स गंड-बंध- पडिघात करेस्सामि ।
अलं पुरे मरणं । तण्हा गंड- बंधण पडिघातं करेता णाण- दंसण-चरिताई पडसे विसामि ।
इसका भावार्थ यह है कि- मैं अपने पूर्व जोवन में असमाहित (अशुभ) लेश्या वाला था । राग-द्वेष और मोह - ममत्व की ग्रन्थि ने मुझे पराजित कर दिया था । राग-द्वेषादि के ग्रन्थिबन्धन से मेरी आत्मा बद्ध थी । अब ( ऋषि जीवन में ) मैं इस ग्रन्थिबन्धन को तोड़ फेंकूँगा । पहले ( अज्ञानवश ) मैं दुःखरूप (अकाम) मरण से मरा, यही बहुत है । अतः अब मैं उस ग्रन्थि - बन्धन को तोड़कर ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना साधना करूँगा, ( ताकि मैं दोनों प्रकार की मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकू, और समस्त कम से मुक्त हो सकू।)
दुःखमूलक मृत्यु अर्थात् बालमरण के मूल हेतु हैं- अप्रशस्त लेश्या एवं राग-द्वेष की परिणति । जो व्यक्ति राग-द्वेष की प्रगाढ़ ग्रन्थियों से जकड़ा रहता है, वह कामभोगों में गृद्ध रहकर अत्यन्त क्रूर कार्य करता है । वह यही सोचता है कि यह लोक ही प्रत्यक्ष है । जो कुछ मौज-शौक करना है, इस लोक में कर लो । परलोक किसने देखा है ? यही सोचकर हिंसा, झूठ, फरेब, ठगी, चोरी, माया, पैशुन्य, मद्यपान, मांसाहार, धन और स्त्रियों में आसक्ति आदि अनेक पापों में रत रहता है । उसे धर्माचरण करने की रुचि या बुद्धि ही नहीं होती ।
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ऐसे व्यक्ति की मृत्यु की घड़ियों में भो मनोभावना शुद्ध नहीं होती, लेश्याएँ भी प्रशस्त नहीं होतीं, अनेक जीवों के साथ वैर-विरोध करके, अनेक जीवों को पीड़ित, संतप्त करके वह अन्त में दुःखरूप मृत्यु की गोद में सो जाता है । उसकी मृत्यु सुन्दर नहीं होती ।