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________________ मृत्यु का रहस्यः ६३ है, इस परीक्षा की पूर्व तयारी करने के लिए। परन्तु जो व्यक्ति अपने जोवनकाल में कोई सत्कार्य, धर्माचरण या अध्यात्म साधना नहीं करता, यही सोचता है कि अभी क्या जल्दी है ? अभी तो जवानी है अथवा बुढ़ापा है तो क्या हुआ, अभी तो स्वस्थ एवं सशक्त हूँ। जब मृत्यु सिर पर आयेगी, तब तैयारी कर लूगा, प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु का आलिंगन कर लूगा। परन्तु यह बात प्रायः असम्भव-सी है। अध्ययन में परिश्रम न करने वाले लापरवाह विद्यार्थी की तरह ऐसा व्यक्ति मृत्यु की परीक्षा में असफल होता है। मृत्यु वेला में उसके स्मृतिपट पर पूर्वजीवन के वे ही बुरे दृश्य, विकृत संस्कार और विकारों के चित्र उभर कर आएँगे। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु बिगड़ जाती है। _ मृत्यु तो जीवनभर की कमाई का निचोड़ है, तलपट है। व्यापारी वर्ष के अन्त में अपने हानि-लाभ का आँकड़ा निकालता है । यदि सालभर में उसने मेहनत करके अच्छी कमाई को होगो तो तलपट में लाभ का हिस्सा अधिक होगा । वह वर्ष सफल माना जाएगा। इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय में व्यक्ति अपने जीवनभर का पुण्य-पाप का लेखा-जोखा करे और उस समय तल-पट मे लाभ के बदले हानि का हिस्सा ही ज्यादा हो तो समझा जाएगा, जीवन असफल रहा। . अन्तमति सो गति जैन सिद्धान्त का यह माना हुआ तथ्य है कि अन्तिम समय में जिस प्रकार को लेश्या या मन के अध्यवसाय होते हैं, तदनुसार उसको गति, मति होती है। उत्तराध्ययन सूत्र (अ. ३४/६० गा.) इस बात का साक्षी है अंतोमुहत्तंमिगए, अंतो मुहत्तमपि सेसए चेव । लेसाहिं परिणयाहिं जीवा गच्छंति परलोयं ।। जिस लेश्या में जीव अन्तिम समय में मृत्यु प्राप्त करता है, अन्तमुहर्त शेष रहने पर परलोक में भी वह उसी लेश्या में परिणत होकर उसी गति (परलोक) में जाकर उत्पन्न होता है। भगवतीसत्र से भी कहा है-"जल्लेसे मरइ, तल्लेसे उववज्जइ ।" जिस लेश्या में जीव मरता है, उसी लेश्या वाले स्थान में उत्पन्न होता है । गीता के अमरगायक कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने भी कहा है यं यं वापि स्मरन् भावं, त्यजन्त्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौन्तेय ! सदा तद्भाव-भावितः ।।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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