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अमरदीप
आगम की भाषा में इन्हें क्रमशः ‘पण्डितमरण' और 'बालमरण' कहा गया है । शील, सत्य, संयम तथा धर्म का पालन करते हुए जो ज्ञानपूर्वक हंसते-हंसते स्वेच्छा से मृत्यु का स्वीकार करता है, उसके मरण को 'पण्डितमरण' कहते हैं, जबकि शील, सत्य, सयम और धर्म से रहित जीवन व्यतीत करते हुए जो अज्ञानपूर्वक रोते-बिलखते अनिच्छा से मरता है, उसके मरण को 'बालमरण' कहते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र (अ. ५ गा. २) में इसी प्रकार द्विविध मरण का विवरण दिया गया है
____ संतिमे य दुवे ठाणा, अक्खाया मरणंतिया ।
अकाममरणं चेव, सकाममरणं तहा ।। __ 'ये दो मरणान्तिक स्थान कहे हैं ; यथा-अकाममरण और सकाममरण ।' बालमरण : दुःखरूपमरण : स्वरूप और कारण
जीवन में गाफिल होकर बिना तैयारी के, बिना धर्मपालन के दुःखितपीड़ित होते हुए जो मरता है, उसको मृत्यु बालमरण है । बालमरण वाले का जीवन अन्तिम समय में मोहमाया में उलझा हुआ और दयनीय बन जाता है। जिसने जिंदगी में कोई सत्कार्य नहीं किया, केवल पापकार्यों में ही रचा-पचा रहा, महारम्भ और महापरिग्रह में हो डूबा रहा, निश्चित हो उसकी मृत्यु भयावह और दुःखद होती है। उसकी मृत्यु दुनिया के लिए अभिशापरूप . होती है। वह जब अपनी जीवनलीला समाप्त करता है तो जनता के मुह से सहसा ये उद्गार निकलते हैं -'अच्छा हुआ, पापो मर गया, पाप कटा।'
साथ ही उस व्यक्ति की मृत्यु भी अत्यन्त भयावह और दुःखद होती है, जो जीवनभर भोग और प्रमाद में, धन जोड़ने और परिवार पर मोहममता करने में ही पड़ा रहता है । जब मौत अकस्मात् उसके सामने आती है, तो वह हक्का-बक्का-सा रह जाता है । उस समय वह सोच ही नहीं पाता कि अब क्या करू ? ऐसे व्यक्ति को अन्तिम क्षणों में पश्चाताप हो रहता है। यही दुःखरूप मरण का चित्र है। बालमरण के तीन मुख्य कारण
अतः 'बालमरण' अर्थात पश्चात्तापपूर्वक मृत्यु का सबसे पहला कारण है-मृत्यु को पूर्व तयारी न होना। मृत्यु एक प्रकार से परीक्षा काल है। विद्यार्थी वर्षभर पढ़ता है, और वर्ष के अन्त में उसको परीक्षा होती है। जो विद्यार्थी अध्ययनकाल में मन लगाकर अध्ययन नहीं करता, मटरगश्ती करता रहता है, वह परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकता। इसी प्रकार मृत्यु भी मनुष्य के जीवन का परीक्षाकाल है। उसे अपने आयुष्यभर समय मिला