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मृत्यु का रहस्य ६१ आएँगी। यदि आप आयुष्य के क्षणों को थोड़े-से बढ़ा लें तो यह टल सकता है।
भगवन् ने कहा-इन्द्र ! न तो ऐसा हुआ है, न ही ऐसा होता है, और न ही भविष्य में ऐसा होगा। कोई भी व्यक्ति आयुष्य के क्षण को-मृत्यु को टाल नहीं सकता। कोई भी शक्ति मृत्यु के समय का रोक नहीं सकती। वह अवश्य ही आएगी।
मृत्यु मृत्यु में अन्तर भगवान महावीर मत्यु से कदापि नहीं डरे । वे क र चण्डकौशिक की बांबी पर गये, तब भी मृत्यु की परवाह नहीं की, अनार्य देश में गये, तब भी निर्भय होकर । फिर सामान्य मानव मृत्यु से क्यों डरता है ? जबकि मृत्यु तो सबको आने वाली है । शरीरधारी सभी प्राणियों को एक न एक दिन मरना तो है हो । परन्तु मृत्यु से डरने वाला कायर पुरुष रोते-बिलखते मरता है, और निर्भय एवं सयमशील व्यक्ति हंसते-हंसते मरता है। मरते दोनों ही हैं, परन्तु दोनों की मृत्यु में महान् अन्तर है। एक उर्दू शायर ने कहा है
हंस के दुनियाँ में मरा कोई. कोई रोके मरा। __ जिंदगी पाई मगर उसने, जो कुछ होके मरा ॥
दोनों प्रकार के मरण का अन्तर बताते हुए प्रस्तुत तेईसव अध्ययन में रामपुत्र अर्हतर्षि कहते हैं
'दुवे मरणा अस्सि लोए एवमाहिज्जति, तं जहा-- सुहमत चेव दुहमतं चेव । रामपुत्तेण अरहता इसिणा बुइतं ।'
इस लोक में दो प्रकार की मृत्यु बताई गई है; यथा- सुखरूप मरण और दुखरूप मरण ।
रामपुत्र अर्हतर्षि इस प्रकार बोले।
संसार में दो प्रकार के मानव' होते हैं। एक तो वे हैं, जो मौत को देखकर रोते-चिल्लाते हुए मरते हैं, दूसरे वे हैं जो मौत को देखते ही वीरता. पूर्वक उसका स्वागत करते हैं और अभय की प्रतिमा बनकर हंसते-हंसते डट जाते हैं । निश्चित है कि एक की मृत्यु दुःखरूप है जबकि दूसरे की सुखरूप है। जिसने अपने जीवन में शान्तिमय कार्य किया होगा, जिसने दूसरों के पथ में सुख-शान्ति के फूल बिछाये होंगे, उसकी मृत्यु भी सुखरूप होगी, और जिसने दूसरों के जीवन में आग लगाई होगी, समाज और राष्ट्र में अशान्ति फैलाई होगी, स्वय भी जीवनभर उसी दुःख और अशान्ति की आग में जलता रहा होगा, उसकी मृत्यु भी दुःखरूप होगी। वह कदापि सुखरूप नहीं हो सकती।