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५८ अमरदीप क्रोधादि विकारों से दूर रहने के लिए सर्वदा सर्वत्र सर्वमुनिधर्मों का ध्यान करने का निर्देश करते हैं।
सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य ।
सवस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥१४॥ जो स्थान शरीर में मस्तक का है और वृक्ष के लिए मूल का है, वही स्थान समस्त मुनि धर्मों के लिए ध्यान का है । अतः साधक को शुभ ध्यान करना चाहिए।
साधक को सदंव, समस्त साधुधर्म की किसी भी मूल्य पर रक्षा करनी अनिवार्य है। इसीलिए उसे सर्वत्र प्रवृत्ति करते हुए साधूधर्म की सुरक्षा का सदैव ध्यान रखना उचित है। साधुधर्म की साधना में तभी प्रखरता आ सकती है, जब साधक का चित्त अन्य सब परभावों-बाह्यपदार्थों या विभावों से हटकर एकमात्र साधुत्व की साधना में एकाग्र होगा। मन की बिखरी हुई किरणें जब किसी एक तत्त्व पर केन्द्रित हो जाती हैं, तब उसकी आत्मशक्ति में प्रखरता आ जाती है । शुभ अध्यवसाय या मन की शुभ में एकाग्रता ही साधुत्व की साधना को मोक्ष की ओर अग्रसर करती है, क्योंकि श्रमणधर्म की साधना का मूल प्रशस्त ध्यान है। बन्धुओ!
आत्म-साधना में साधक और बाधक तत्त्वों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करके आप भी साधक तत्त्वों को अपनाएँ; और बाधक तत्त्वों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर, प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनका त्याग करें। यही श्रेयस्कर मार्ग है।
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