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मारी : नागिनी या नारायणी ५७ अवश्य करे । तथा यह कार्य पापानुबन्धी पुण्य का है, पुण्यानुबन्धी पाप का है, पुण्यानुबन्धी पुण्य का है अथवा पापानुबन्धी पाप का है ? इसका भलीभाँति विवेक करे, सूक्ष्मदृष्टि से चिन्तन-मनन करे ।
आरम्भ और अनुबन्ध का विचार करना आवश्यक अगर साधक आरम्भ और अनुबन्ध का ठीक-ठीक परिज्ञान न करके यों ही अन्धाधुन्ध प्रवृत्ति करेगा या करने की प्रेरणा देगा तो संवर के स्थान पर आस्रव उपाजित कर लेगा, कर्म से मुक्त होने के बदले कर्मबन्ध अधिक कर लेगा।
इसी प्रकार साधक यह भी देखेगा कि यह सुख वस्तुजन्य सुख है, अथवा क्षणिक अल्पकालिक सुख है, या वह आत्मिक सुख-स्वाधीन सुख है ? कई बार साधक देखादेखी क्षणिक और वस्तुनिष्ठ सुख के प्रवाह में पड़कर उस सुख का अनुगामी बन जाता है, तदनुसार अपनी श्रद्धा और प्ररूपणा बना लेता है। अन्ततः सुखशील बनकर वह अपने संयम से भ्रष्ट हो जाता है। यह स्थिति साधक के लिए बहुत भयानक है । अत: कालज्ञ साधक को उस सुख के विनाशी-अविनाशी आदि सभी पहलुओं पर दीर्घ दृष्टि से विचार करना चाहिए । सुख की मृग मरीचिका में फंसकर उसके पीछे दुःख की परम्परा को मोल लेना साधक के लिए कथमपि हितावह नहीं है। अत: जिन समारम्भों अर्थात्-हिंसात्मक प्रयत्नों द्वारा सुख खोजा जाता है और जो उसके अनुगामी बनते हैं, वे विपथगामी हैं संयमविनाश के पथिक है।
___ यदि कोई संयम विघातक वस्तु साधक के ध्यान में आ जाय तो उसे उसके मूल और फलं का विचार करना चाहिए, और शीघ्र ही जड़मूल से उसे दूर कर देना चाहिए, देर करने से रोग की तरह वह भी बढ़ता चला जाएगा, फिर तो उसे रोकना भी कठिन हो जायेगा। अथवा यदि किसी वस्तु का विकास करना है तो उसके मूल का सिंचन करना होगा। इसी तरह यदि काम-क्रोधादि किसी विकार को नष्ट करना है तो उसके निमित्त पर नहीं, उसके मूल (उपादान) पर प्रहार करना होगा । तात्पर्य यह है कि नारी यदि काम विकार का निमित्त बनती है, तो उस निमित्त को दूर कर देने मात्र से कामविकार समाप्त नहीं हो जाएगा, अथवा गुप्तांग के छेदन करने, नेत्र के फोड़ने आदि से भी वह दूर नहीं होगा, काम विकार का मूल मन में है, उसे मन से त्याग और वैराग्य द्वारा हटाना होगा।
___ सर्व साधु धर्म का ध्यान ः साधना का मूल अब अर्हतर्षि इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए साधक को काम