SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ अमरदीप महाव्रती साधक को उत्तराध्ययनसूत्र में प्ररूपित उस शिक्षा की ओर प्रतिक्षण ध्यान देना चाहिए चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मन्नमाणो । साधक प्रत्येक कदम शंकित होकर चले । वह इस संसार में जो कुछ भी पाश हैं, स्नेहबन्धन या आसक्तिबन्धन हैं अथवा कामराग या दृष्टिराग हैं, उन्हें बन्धन मानकर चले । संसार में पद-पद पर भयस्थल हैं, कहीं राग की आग जल रही है, तो कहीं द्वेष का दावानल जल रहा है, कहीं मोह का मारक शस्त्र चल रहा है, तो कहीं दर्प (मद) रूपी सर्प डसने को उतारू है, कहीं काम का विषवृक्ष मीठे किम्पाकफल लिए खड़ा है, तो कहीं अपने संयम के लिए शंकास्पद वस्तु है, तो कहीं अपने ही गुरुजन या साथी साधक संयम में बाधक बने हुए हैं, जिनका सहसा प्रतीकार करना भी शक्य नहीं है । अतः साधक प्रतिक्षण सावधान रहकर किसी भी वस्तु का उपयोग करे या किसी प्रवृत्ति में प्रवृत्त हो । साधक के जीवन में ऐसे भी प्रसंग आते हैं जबकि उसे सन्देहास्पद वस्तु का उपयोग करना अनिवार्य हो जाता है, किन्तु वह ऐसे समय में अतीव सतर्क रहे । सर्वप्रथम उस वस्तु के स्वरूप का ज्ञान करे, साथ ही उसका परिणाम भी जाने । यदि ऐसा न किया गया तो वह वस्तु विघात भी कर सकती है । सुयोग्य वैद्य सोमल विष का स्वरूप और परिणाम जानता है, अत: वह उसे रोग के अनुरूप उचित मात्रा में शोधन करके देता है तो वह विष भी अमृत हो जाता है। इसी तरह साधक को स्वरूप के साथ परिणाम का ज्ञान है तो उसके लिए विष भी अमृत होगा, और यदि उसे परिणाम का ज्ञान नहीं है तो अमृत भी विष का काम करेगा । उदाहरणतः -- साधु के लिए स्त्री का स्पर्श उत्सर्ग मार्ग ( सामान्य रूप ) में वर्जनीय है, किन्तु यदि साध्वी नदी पार करती हुई डूब रही है, साधु तैरना जानता है, सामने देख रहा है, तो उस समय उसका कर्त्तव्य है कि वह साध्वी के प्रति भगिनीभाव या मातृभाव रखकर उसे पकड़कर नदी से बाहर लाये, उसके प्राण बचाये । इसी प्रकार साधक आरम्भ और अनुबन्ध का भी यथार्थ विवेक करे । जैसे - जहाँ जिस वस्तु में आरम्भ हो, वहाँ साधक के लिए वह वस्तु वर्जनीय है, किन्तु किसी औषधि या तदनुरूप पथ्य के लिए श्रावक के यहाँ मे अपने लिये आरम्भ की हुई वस्तु भी लेनी पड़ती है । परन्तु साधु वहाँ आवश्यक, अनावश्यक, तथा कब तक और कितनी मात्रा में ? इसका विवेक
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy