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नारी : नागिनी या मारायणी ५५ सब प्रकार के दुःखों की प्रतिष्ठारूप है; अर्थात् समस्त दुःखों की जड़ है। वह आर्यत्व को समाप्त कर देती है, वह गम्भीर वैरों (शत्रुओं) की घर है और सद्धर्मचारियों के लिए विघ्नरूप है। यहाँ अर्हतर्षि ने नारी के दुष्टस्वभाव का चित्रण किया है।
इन शंकास्पद वस्तुओं से सावधान अब दूसरे पहलू से अर्हतर्षि वस्तुस्वरूप का ज्ञान करने और प्रतिपल भयजनक एवं शंकास्पद वस्तुओं से - विशेषतः कामोत्तेजना में निमित्त नारी जाति से सावधान रहने का प्रतिपादन करते हैं
डाहो भयं हुतासातो, विसातो मरणं भयं । छेदो भयं च सत्थातो, वालातो डसणं भयं ॥६॥ संकीणीयं जं वत्थु, अप्पडिक्कारमेव . य । तं वत्थुसुट्ठ जाणेज्जा, जुज्जं ते जेणु जोइता ॥१०॥ जत्थथि जे समारंभा, जेवा जे साणुबंधिणो । ते वत्थु सुठ्ठ जाणेज्जा, णेयं सव्वविणिच्छए ॥११॥ जेसि जहिं सुहप्पत्ती, जे वा जे साणुगामिणो । विणासी अविणासी वा. जाणेज्जा कालवेयवी ॥१२॥ सीसच्छेदे धुवो मच्चु, मूलच्छेदे हतो दुमो ।
मूलं फलं च सव्वं च, जाणेज्जा सव्ववत्थुसु ॥१३॥ 'अग्नि से जलने का भय है, विष से मरने का भय है, शस्त्र से छेदन का भय है और सर्प से डसे जाने का भय है।'
जो वस्तु शंकास्पद है, तथा जिसका प्रतीकार करना भी शक्य नहीं है, उस वस्तु के उपभोक्ता के लिए उचित है कि वह उस वस्तु को भलीभांति जान ले।'
'जहाँ पर जो समारम्भ है, और जो सानुबन्ध है, उस वस्तु को ठीकठीक जाने । यही परिज्ञान सभी पदार्थों के निश्चय में सहायक हो सकता है।'
___ जिसके लिए जहाँ पर सुखोत्पत्ति है, और जो जिसके अनुगामी है, कालविद् उसके विनाशी और अविनाशी स्वरूप का अवश्य ही परिज्ञान कर ले।
'मस्तक के छेदन से निश्चय ही मृत्यु होती है, मूल के छेदन से भी वक्ष का विनाश निश्चित हैं। इसी प्रकार विचारक सभी वस्तुओं के मूल और उसके फल का विचार करे।'