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५२ अमरदीप ....: स्वभाव को दुर्जनता और जीवन की अपवित्रता केवल नारी में ही हो, पुरुष में न हो, ऐसी बात नहीं है। बल्कि पुरुष तो नारी से भी अधिक क्र र, स्वार्थी, अधम और दुर्जन बन सकता है । किन्तु यहाँ प्रसंग नारी के स्वभाव तथा विविध प्रकार की मनोवृत्ति वाली नारियों के चरित्र के चित्रण का है।
अर्हतर्षि दगभालो इसी विषय के दूसरे पहलू पर चिन्तन प्रस्तुत कर
इथिओ बलवं जत्थ, गामेसु णगरेसु वा । अणस्सवस्सं हेसं तं अप्पव्वेसु य मुण्डणं ।।७।।
धित्तेसि गाम-णगराणं सिलोगो ।।८।। जिन ग्रामों या नगरों में स्त्रियाँ हो बलवती (प्रबल और हठीली) होती हैं, वहाँ पुरुषों को स्थिति विवरा मजबूर घोड़े की हिनहिनाहट के समान है। यदि पुरुष कुछ विरोध भी करता है तो बिना मुहूर्त के मुण्डन की तरह उसकी बेइज्जतो के सिवाय और कुछ नहीं होता।
- जहाँ स्त्रियों का शासन है, वे ग्राम और नगर धिक्कार के पात्र हैं।
जिस ग्राम या नगर में स्त्रियाँ जो चाहती हैं, वही हठपूर्वक करती हैं, सज्जन पुरुषों की जहाँ कोई भी पेश नहीं चलती, स्त्रियाँ ही मनमानी करती हैं, अथवा जहाँ विलासी पुरुष स्त्रियों का गुलाम बना हुआ है, वह ग्राम या नगर पौरुषहीन, स्त्रण और परमुखापेक्षी हो जाता है। वहाँ अनीति, अन्याय और अधर्म अपना अड्डा जमाने में देर नहीं करते। वे ग्राम्य जन या नागरिक असमर्थ (विवश) घोड़े के समान केवल शब्द करते हैं, उनको वाणो में कोई तेज नहीं होता । वे स्त्रियों के गुलाम बनकर समाज में कोई सुधार नहीं करा सकते। इसी प्रकार जो नारियां पर्दे में लिपटी, गुड़िया-सी बनकर अपने शील को रक्षा करने में असमर्थ रहती हैं, या गुण्डों या दुष्टों के भय से घर से बाहर नहीं निकल सकतीं । ऐसी नारियों से परिवार, समाज और राष्ट्र कलंकित और पापाचरण-परायण हो जाता है।
निष्कर्ष यह है कि साधक को अच्छी और बुरी सभी प्रकार की नारियों से सतर्क और जागृत रहना चाहिए। नारो : तप, त्याग एवं सेवा की मूर्ति
नारी का एक उज्ज्वल पक्ष भी है, जिसे अर्हतर्षि ने प्रस्तुत किया है। सरलता, वत्सलता और धोरता आदि गुण भारतीय नारी में कूट-कूट कर भरे हैं। जैसा कि धर्मकल्पद्रुम में कहा है--