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नारी : नागिनी या नारायणी ४६ कलाकार प्रभु की मूर्ति बनाता, तब भी उसके लिए छवि वहाँ की सर्वश्रेष्ठ नर्तकी या वेश्या की रहती थी।
___ अर्हतषि के कहने का तात्पर्य यही है कि जिस देश की जनता के दिल-दिमाग में स्त्री और वासना का एकाधिपत्य हो, उसका पतन निश्चित है।
___ एक स्त्री भी, अगर योग्य है, धर्म-मर्यादा में स्थित है, उसमें कोमलता के साथ शासन करने की कठोरता भी है, तो वह राज्य-व्यवस्था का दायित्व भी निभा सकती है, नेत्री भी बन सकती है, परन्तु अगर वह नेत्री बनने के बजाय अभिनेत्री बनकर जनता पर शासन करना चाहे तो वह गलत है। वह फैशन की परी तथा स्वच्छन्द बनकर जनता को सादगी और अनुशासन में रहने की प्रेरणा देने लगे तो ऐसा देश सचमुच आगे चलकर वासना का गुलाम बन सकता है।
नारी के अनेक रूप : अच्छे भी, बुरे भी - इसीलिए अर्हतषि दगभाली नारी के अनेक रूपों को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं
गाहाकुला सुदिव्वा व, भावका मधुरोदका । फुल्ला व पउमिणी रम्मा, वालक्कंता व मालवी ॥२॥ हेमा गुहा ससीहा वा, माला वा वज्झकप्पिता । सविसा गंधजुत्ती वा, अंतोदुट्ठा व वाहिणी ॥३॥ गरंता मदिरा वा वि, जोगकण्णा व सालिणी ।
णारी लोगम्मि विण्णेया, जा होज्जा सगुणोदया ॥४॥ अर्थात्-'नारी सुदिव्यकुल की गाथा के सदृश है, वह सुवासित मधुर जल के समान है, विकसित रमणीय पद्मिनी के तुल्य है, सांपों से लिपटी मालती के सदृश भी है । वह स्वर्ण की गुफा है जिसमें सिंह बैठा हुआ है, वह फूलों की माला है, पर विषाक्त पुष्पों की बनी हुई है, दूसरों के संहार के लिए वह विष-मिश्रित गन्धपुटिका है, वह नदी की निर्मल जलधारा है, परन्तु उसके मध्य में भयकर प्राणहारक भंवर है, वह मत्त बना देने वाली है। वह शालीन योगकन्या के सदृश है, वह नारीलोक में विज्ञय अपने गुणों के प्रकाश में यथार्थ नारी है।'
वस्तुतः नारी के अनेक रूप हैं । वह कोमलता और कठोरता का समन्वय है । अर्हतर्षि ने नारी के विविध रूपों का यहाँ बड़ो साहित्यिक भाषामें