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४६ अमरदीप किया था। भगवान महावीर ने भी चन्दनबाला जैसी विपत्ति में पड़ी हुई, दासी बनी हई महिला को दीक्षा देकर स्त्रीजाति का परम उद्धार किया था। उनको भी तप, त्याग, संयम और मुक्तिप्राप्ति का पुरुषों के समान अधिकार दिया था। इसलिए यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि स्त्रियाँ 'अबला' नहीं, 'प्रबला' हैं। कामवासना से सावधान रहने का निर्देश
__ वास्तव में देखा जाए तो न तो नारी नागिन है और न पुरुष ही नाग है। किन्तु मन में जो कामवासनारूपी नागिन बैठी है, उससे साधक को सावधान रहने के लिए ही यत्र-तत्र ऐसा कहा गया है। वह साधक के लिए सावधानी की भाषा है, नारी के प्रति अपमान की भाषा नहीं है।
परन्तु गम्भीरता के साथ चिन्तन करने से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्री में कोमलता और भावुकता अधिक होती है, इसलिए वह सहसा पतन की ओर झुक जाती है। पुरुषों में कठोरता, दृढ़ता
और साहसिकता होती है, इस कारण वह स्वीकृत संयम-पथ से सहसा डिग नहीं पाता । यही कारण है कि धर्म को पुरुष-प्रधान कहा गया है। साधक जलकमलवत् कर्मों से निलिप्त रहे
अर्हतर्षि दगभाली पुरुषादानी भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के प्रत्येकबद्ध हुए हैं। उन्होंने प्रस्तुत बाईसवें अध्ययन में धर्म में दृढ़ता की दृष्टि से पुरुषजाति को प्रधानता देकर तथाकथित नारी से सावधान रहने का साधक को निर्देश दिया है।
उन्होंने सर्वप्रथम साधक को समाज के बीच निलिप्त रहने तथा कर्मबन्धन होने वाले कार्यों से दूर रहकर कर्मों को आत्मा से पृथक् करने का सन्देश देते हुए कहा है
परिसाडी कम्मे । अपरिसाडिणोऽबुद्धा, तम्हा खलु अपरिसाडिणो बुद्धा णोवलिप्पति रएणं-पुक्खरपत्तं व वारिणा । दगभालेण अरहता इसिणा बुइतं ।
अर्थात्-'साधक कर्मों को (आत्मा से) पृथक् करे। जो कर्मों का परिशाटन (पृथक्करण) नहीं करते, वे अबुद्ध साधक होते हैं। कर्मों को पृथक करने वाले प्रबुद्धात्मा साधक कर्मरज से उसी प्रकार अलिप्त रहते हैं, जिस प्रकार कमल पानी से अलिप्त रहता है। इस प्रकार दगभाली अर्हतर्षि ने कहा।'