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________________ ४२ अमरदीप का ज्ञान सफलता का सिंहद्वार है । अज्ञान से संयोजना में सफलता नहीं मिल सकती । अज्ञानी की असफलता के विषय में तरुण अर्हतषि कहते हैंविण्णासो ओसहीणं तु संयोगाणं व जोयणं । साहणं वा वि विज्जाणं, अण्णाणेण ण सिझति ॥ ६ ॥ अर्थात् - औषधियों का विन्यास ( यथास्थान यथायोग्य संयोजन ) करना, रुग्ण की हालत देखकर औषधि देना, और विद्याध्ययन, अथवा विद्याओं की साधना, ऐसी बातें हैं, जिनमें अज्ञान से कदापि सफलता प्राप्त नहीं कर सकता । एक विचारक ने कहा है अमन्त्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम् । अयोग्यः पुरुषो नास्ति, योजकस्तत्र दुर्लभः ॥ संसार में कोई भी ऐसा अक्षर नहीं है, जो मन्त्र न हो, कोई भी बनस्पति ऐसी नहीं है, जो औषध न बन सकती हो, और कोई भी पुरुष अयोग्य नहीं है, दुर्लभ है इन सबका संयोजक ! जिसे संयोजना का ज्ञान नहीं होता, वह अमृत को भी विष बना देता है, जबकि संयोजनाज्ञाता विष को भी अमृत बना सकता है । स्वर और व्यंजनों के उन्हीं अक्षरों से चामत्कारिक मन्त्र वा कमनीय काव्य की सृष्टि हो सकती है, जबकि अज्ञानी व्यक्ति उन्हीं अक्षरों का किसी के अपमान, तिरस्कार आदि में प्रयोग करता है । विद्याएँ संयोजन ज्ञान का ही चमत्कार है । सब कुछ उपलब्ध है, किन्तु साधना के परि के अभाव में कभी सिद्धि नहीं मिल सकती । सफलता को असफलता में बदलने वाला अज्ञान ही है। ज्ञान का महत्व आँकते हुए तरुण अर्हतषि कहते हैंविग्णासो ओसहीणं तु, संजोगाणं व जोयणं । 1 ज्ञान साहणं वा वि विज्जाणं, णाणजोगेण सिज्झति ॥ १० ॥ औषधियों का विन्यास - संरचना, औषधियों की व्यवस्था, संयोगों की संयोजना, और विद्याओं की साधना ज्ञान के द्वारा ही सिद्ध होती है । अतः सफलता का द्वार ज्ञान है -- सम्यग्ज्ञान है, साध्य की ओर कदम ज्ञान से ही बढ़ाया जाता है, किन्तु जिसे साधन का परिज्ञान नहीं है, वह साध्य तक पहुंच ही नहीं सकता सम्यक् ज्ञान जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उपयोगी है । वह सुख, उत्साह, प्रसन्नता और शक्ति प्रदान करने वाला है । वह हजारों व्यक्तियों को प्रकाश की राह दिखाता है । आपके हाथ में टॉर्च है, तो आप निर्भीक होकर अंधेरे में जा सकते हैं । अतः ज्ञान टॉर्च है, जो आत्मा को निर्भीक, उत्साहित होकर चारित्र का पथ दिखाता है । इसीलिए साधक प्रतिज्ञा करता है - 'अन्नाण परियाणामि, नाण उवसंपवज्जामि अर्थात् - अज्ञान को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्यागता है। और ज्ञान के निकट जाता है ।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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