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________________ अन्धकार से प्रकाश की ओर ४१ त्रासदायक बन जाती है । अर्हषि मानव-मन की इसी अज्ञानप्रेरित वृत्ति की एक ऐतिहासिक कहानी यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं___माता भद्रा को अपना पुत्र बहुत ही प्यारा था । वह नहीं चाहती थी कि उसका पुत्र पति के साथ दीक्षित हो। परन्तु उसके पुत्र ने संसारविरक्त होकर दीक्षा ले ली। तब वह उससे रुष्ट हो गई और आत्महत्या कर ली। अगले जन्म में वह सिंहनी बनी। एक बार जंगल में उसके पूर्वजन्म का पुत्र मुनि वेश में ध्यानस्थ खड़ा था। पूर्व जन्म का वैर उमड़ा और कुपित होकर वह मुनि को अपने पंजे से चीर कर खागई। यह है, अज्ञान की विडम्बना कि पूर्वजन्म में एक दिन भी जिसका वियोग सहन नहीं कर पाती थी, इस जन्म में वह उसी के खून की प्यासी बन गई। ___ अज्ञान की ये दारुण दु:खदायिनी घटनाएँ बताती हैं कि मनुष्य अज्ञानवश उन्हीं पदार्थों में आनन्द मानता है, जो उसे हानि पहुंचाते हैं। अज्ञान में आत्मा हेय को उपादेय और उपादेय को हेय समझता है । सर्प और अग्नि भयंकर और हेय तथा सोना और चाँदी आकर्षक और ग्राह्य लगते हैं। किन्तु क्या आपको जितना सर्प और आग से भय लगता है, उतना अन्याय, अत्याचार और असत्य से भय लगता है ? अंधेरे में सोने का हार सर्प-सा भयंकर दिखाई देता है। निष्कर्ष यह है कि अज्ञानदशा में सभी वस्तुएं विपरीत रूप में, मिथ्या प्रतिभाषित होती हैं । अतः अज्ञान को दुःख रूप, भयरूप और भवपरम्परा का मूल जानकर उससे दूर रहने का प्रयत्न कीजिए। ज्ञान की आवश्यकता और कार्यक्षमता मनुष्य की प्रत्येक प्रवृत्ति में पद-पद पर ज्ञान की आवश्यकता रहती है। मान लो, एक व्यक्ति के पास घड़ी है और दूसरे के पास घड़ी बनाने की कला का या घड़ी के स्वरूप का ज्ञान है, तो मैं आपसे पूछता हूँ, किसका जीवन महत्वपूर्ण एव बहुमूल्य है ? घड़ी की कीमत तो सौ से हजार रुपये तक हो सकती है, किन्तु जिसे घड़ी के स्वरूप या निर्माण का ज्ञान है, उसका मूल्य एवं महत्व ज्यादा ही है। घडी बिगड़ जाने पर उसे घड़ीसाज को कोई चिन्ता नहीं होती, घड़ी वाले को चिन्ता हो सकती है। इसी प्रकार जिसे आत्मा के स्वरूप का ज्ञान है, वह देहरूपी घड़ी के बन्द हो जाने पर रोता नहीं, वह सोचता है । अतः साधनानिष्ठ आत्मस्वरूपज्ञ व्यक्ति के ज्ञान की कीमत ज्यादा है। घड़ीसाज घड़ी के पुों को यथास्थान सुव्यवस्थित जमाता है, पुर्जे कितने ही अस्तव्यस्त हों, वह उन्हें यथास्थान जमाकर घड़ी चालू कर देता है। निष्कर्ष यह है कि विविध वस्तुओं की यथास्थान संयोजना
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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