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________________ ४० अमरदीप में?' चालाक सियार बोला -- ' हुजूर ! मैं तो शीघ्र ही आ रहा था, किन्तु रास्ते में एक दूसरा सिंह मिल गया । उसने मुझे रोक लिया और पूछा'कहां जा रहा हैं ?' मैंने कहा - 'मैं वनराज के यहाँ जा रहा हूं ।' वह बोला- 'वह तो बूढ़ा हो गया है, अब तो मैं वनराज हूँ ।' वृद्ध सिंह इन शब्दों को सुनते ही आगबबूला हो गया । तीखे स्वर में पूछा - 'कौन और कहाँ है, वनराज ! मुझे दिखलाओ तो। मैं एक ही पंजे से उसे चीर दूँगा ।' चतुर शृगाल आगे-आगे हो लिया। पीछे-पीछे वनराज एक ही प्रहार में अपने प्रतिद्वन्द्वी को फाड़ डालने का मनसूबा करते हुए चले आ रहे थे । शृगाल एक कुएँ के पास आकर उसे देखने का-सा नाटक करने लगा । कुछ देर रुककर वह सफलता के आवेश में जोर से चिल्लाया- 'मिल गया, मिल गया !! आपके डर से वह इसी कुएँ जाकर छिप गया है । उसे भी तो अपनी जान प्यारी है !" सिंह एक ही छलांग में कुए के निकट आ गया। कुए में झांका तो सिंह की-सी आकृति दिखाई दी । वृद्ध सिंह गर्जा - " निकल बाहर कायर ! आज तुझे जिन्दा नहीं छोड़ ू गा । ' ले अभी आया ।' इतना कहकर उस सिंह ने कुएं में छलांग लगा दी । शृगाल मुस्करा दिया। मन ही मन सोचा - 'अपनी छाया को ही मिटाने चला, स्वयं मिट गया ।' यह है, अज्ञान से मोहित वृद्धसिंह के सर्वनाश की कथा ! अब सुनिये, सिंह और सर्प के अज्ञान के कारण दोनों के नष्ट होने कथा ! सर्प के बिल के निकट एक सिंह सो रहा था। अचानक बिल में से सर्प निकला । उसने सिंह को डस लिया । उधर पीड़ा से उत्तेजित होकर सिंह ने भी अपने नुकीले पंजों से सांप को नोच डाला ।। दोनों ही थोड़ी देर में समाप्त हो गये । - अज्ञानवश, जिस पुत्र पर राग, उसी के प्रति द्व ेष इसी प्रकार अज्ञानग्रस्त आत्माएं हिंसा और प्रतिहिंसा के द्वारा अपना और दूसरे का विनाश करती हैं । अज्ञान प्राणी से क्या-क्या नहीं करवाता ? अज्ञानान्धकार से ग्रस्त आत्मा पहले अपने माने हुए प्रिय पात्र के वियोग में रागवश व्याकुल होता है, किन्तु उसके मिल जाने पर वही राग द्व ेष में परिणत हो जाता है । अज्ञानवश, जिसकी उपस्थिति पहले हर्षदायक थी, अब उसी की उपस्थिति
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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