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________________ अन्धकार से प्रकाश की ओर सोया सिहत्व जाग उठा । उस सिंह शिशु ने भी अपने स्वरूप को पहचान कर जोर की गर्जना की। सभी भेडें उसकी गर्जना सुनकर भाग खड़ी हुईं । गड़रिया भी डंडा छोड़कर भागा। सिंह - शिशु को अब स्वज्ञान हो गया कि मैं इधर-उधर भटकने वाला और गड़रिये के डंडे पर चलने वाला भेड़ नहीं हूं । इसी प्रकार आत्मा भी जब तक अपने आपको शरीर मानकर उसी के संयोग-वियोग में दुःखी हो जाता है और दुःख दारिद्रय, रोग, शोक, दैन्य, भय आदि के डंडे खाता रहता है । परन्तु जिस क्षण आत्मा अपने वास्तविक रूप को जान लेता है, कि मैं भेड़ आदि रूप नहीं हूं, न ही मैं देहादि रूप हूं । मेरा स्वरूप शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, चिदानन्द रूपं है । तब उसकी एक ही गर्जना में समस्त विकृतिरूपी भेड़ें भाग खड़ी होंगी और वह स्वतंत्र - चेता होकर स्वभाव परिणति का भोक्ता हो जायगा । अज्ञानग्रस्त प्राणियों की कहानियाँ ३६ और सुन लो, पतंगों आदि की कहानी | पतंगा जलते हुए दीपक की लौ पर मोहित होकर गिर पड़ता है । निष्ठुर दीपक उसकी राख बना देता है । रेशम का कीड़ा अपने ही रेशमी तारों से बंधता है और फिर उससे मुक्त होने के लिए छटपटाता है । भोला मानव मधुर और स्वादिष्ट लगने वाले किपाक फल को बहुत ही आसक्तिपूर्वक खाता है । किन्तु वे ही मीठे किन्तु जहरीले फल चार घन्टे में उसकी रग-रग में जहर फैला देते हैं और कुछ क्षण में ही उसका जीवनदीप बुझ जाता है। ये सब दुख गाथाएँ अज्ञान के परिणामों को अभिव्यक्त करती हैं । और सुनिये, उस बलिष्ठ एवं सारे वन को अपनी दहाड़ से कम्पायमान करने वाले सिंह की अज्ञान दशा की लोक प्रसिद्ध कहानी जो तरुण अर्हतषि यहाँ उद्धृत की हैं । एक बार एक वृद्ध सिंह जंगल के समस्त हिरनों और सियारों का वध करने लगा। पशुओं ने मीटिंग करके एकमत से यह प्रस्ताव सिंह के सामने रखा कि 'आपके पास हम बारी-बारी से एक पशु भेज दिया करेंगे ताकि हमारा पशुवंश समाप्त न हो ।' सिंह ने इसे स्वीकार किया । एक दिन एक शृगाल शिशु को बारी थी । उसने बुद्धिमानी से सोचा कि किसी युक्ति से इस सिंह को परलोक भेज देना चाहिए, ताकि सदा के लिए यह सिरदर्द मिट जाए । अतः वह धीरे-धीरे कदम उठाता हुआ कुछ देर से पहुंचा । वृद्धसिंह क्र ुद्ध होकर तीव्र स्वर में बोला- 'अरे ! देर क्यों कर दी आने
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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