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३८ अमरदीप
ये और कई उदाहरण अर्हतषि तरुण के अज्ञानजनित दशा के प्रस्तुत किये हैं ।
संसारी जीवों के लिए अनिवार्य जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, शोक, मान-अपमान आदि सभी दुःख अज्ञान से ही पैदा होते हैं । यह अज्ञान ही है, जिसके कारण मनुष्य ऐसी समस्या पैदा कर लेता है कि बाद में उसे शोक, संकट, अपमान और अन्याय-अत्याचार के रूप में नाना दुःख सहने पड़ते हैं ।
अज्ञान का अर्थ : मिथ्याज्ञान
अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं किन्तु मिथ्या - अयथार्थ ज्ञान है । 'पर' वस्तु में 'स्व' का बोध ही अज्ञान है । अन्यथा, ज्ञान तो आत्मा का स्वभाव है । वह आत्मा से कदापि पृथक नहीं हो सकता । आत्मा की राग-द्वेषात्मक परिणतियाँ ही ज्ञान को अज्ञान में परिणत करती हैं ।
आत्मा अज्ञानरूप क्यों हो जाता है ?
प्रश्न होता है आत्मा ज्ञानस्वरूप है, फिर वह पररूप क्यों हो जाता है ? इसका स्पष्ट उत्तर है
:- अज्ञान ।
एक सिंह का नवजात अनाथ बच्चा जंगल में पड़ा था । भेड़ ने देखा तो उसका मातृ वात्सल्य उमड़ आया । अपने बच्चों के साथ वह उसे भी . दूध पिलाने लगी। सिंह शिशु भी उसे अपनी माँ समझने लगा और भेड़ के बच्चों के साथ चौकड़िया भर कर खेलता रहा । धीरे-धीरे सिंह- शिशु बड़ा हुआ । पर उसमें भेड़ के ही संस्कार विकसित होने लगे । भेड़ों की तरह वह घास चरता और जंगली जानवरों को देखकर भय से काँपता हुआ मिमिया कर भाग जाता । गड़रिया भेड़ों को जब पीटता तो दो-चार डंडे सिंह शावक पर भी जमा देता । वह चीखता और आगे जाने वाली भेड़ों में जा मिलता । वह डंडे इसलिए खाता और डरता था कि उसे निज रूप का पता ही नहीं था ।
एक दिन एक सरोवर के निर्मल जल में वह पानी पी रहा था, तभी एक सिंह ने भेड़ों के झुण्ड पर आक्रमण कर दिया। सभी भेड़ें जान बचा कर भागी। सिंह शावक ने भी सिंह को देखा तो वह भी भयभ्रान्त होकर भागने लगा । संयोगवश सरोवर के जल में उसने अपना चेहरा देख लिया था, जो उस सिंह से मिलता-जुलता था । उसने मन ही मन सोचा - ' अरे मैं तो भेड़ नहीं, सिंह हूं; वैसा ही जैसा कि अभी हम पर झपटा था । और जिसे देखकर सारा जंगल काँप उठा था । बस, सिंह शिशु में भी अपना