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अन्धकार से प्रकाश की ओर
अण्णाण अहं पुव्वं दीहं जम्म- जोणि-भयावत्तं,
संसार सागरं । सरंतो दुक्खजालकं ॥४॥ दीवे पातो पयंगस्स, कोसियारस्स बंधणं । किपाक - भक्रुणं चेव, अण्णाणस्स णिदंसणं ॥ ५ ॥ बितियं जरो दुपाणत्थं, दिट्ठो अण्णाणमोहितो । संभग्ग - गात लट्ठी उमिगारी णिधणं गओ || ६ || मिगारीय भुयंगो य, अण्णाणेण विमोहितो । गाहा-दसा - णिवातेणं, विणासं दो वि ते गता ||७|| सुप्पियं तनयं भद्दा, अण्णाणेण विमोहिता । माता तस्सेव सोगेण, कुद्धा तं चैव खादति ॥ ८ ॥
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अर्थात् अज्ञान ही परम दुःख है, अज्ञान से ही भव का जन्म होता है । समस्त प्राणियों के लिए भवपरम्परा का मूल विविधरूप में व्याप्त यह अज्ञान ही है ।
ज्ञान के कारण ही मृग, पक्षी, मदोन्मत्त हाथी पाश में बंध जाते हैं, और मछलियों के कंठ बींधे जाते हैं । अतः संसार में अज्ञान ही सबसे बड़ा भय है ।
जन्म, जरा, मृत्यु और शोक, मान तथा अपमान, ये सब आत्मा के अज्ञान के कारण ही पैदा हुए हैं। संसार - परिभ्रमण की परम्परा अज्ञान के कारण ही बढ़ती है ।
मैं पहले अज्ञान के कारण ही जन्म और योनि के भयरूप आवर्त्त - शील दीर्घ (लम्बे ) संसार - सागर में भटकता रहा हूँ ।
पतंगे का दीपक पर गिरना, कोशिकार नामक रेशम के कीड़े का बन्धन और किम्पाकफल का भक्षण ये अज्ञान के ही नमूने हैं ।
'अज्ञान में मोहित सिंह कुएं के पानी में दूसरे सिंह को देखकर उस पर गिर पड़ता है । फलतः देह के छिन्न-भिन्न होने से वह मृत्यु को प्राप्त हुआ ।
अज्ञान से विमोहित सिंह और सर्प पंजे की पकड़ और दंश के प्रहार से विनष्ट हो गए ।
सुप्रिय की माता भद्रा अज्ञान से ही विमोहित होती है । उसी शोक सेक्रुद्ध होकर ( सिंहनी बनी हुई) वही माता अपने ही पुत्र ( सुप्रिय) को खा जाती है ।