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३४ अमरदीप
कृत दुःखों के साथ-साथ नरकादि चारों गतियों के दुःखों को न्यौता देता है । अज्ञानी की प्रत्येक प्रवृत्ति, प्रत्येक कार्य अकार्य है, और वह भवपरम्परा की जहरीली बेल का बीज है ।
इसीलिए तरुण अर्हतर्षि कहते हैं कि जो मनुष्य अज्ञानवश सत्ता, सम्पत्ति, साधन, मकान, पद, प्रतिष्ठा, आभूषण, सोना, चांदी आदि काम (कामना-वासना या प्रलोभन - आकर्षण) में फंसा रहता है वह अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है, दुःख पाता है, यह जानकर ही मैंने अज्ञान का पल्ला छोड़ा |
राजकुमार भद्रायु ने तथागत बुद्ध से प्रव्रज्या ग्रहण करने का निश्चय किया, तब उसके पिता ने उसे वैसा करने से इन्कार किया और पूछा - "बेटा, ऐसा कौन-सा अभाव है, जिसके कारण तू दीक्षा ले रहा है ? अगर राज्य की इच्छा है, तो मैं अभी तुझे राज्य सौंप देता हूँ ।"
राजकुमार - "पिताजी ! मुझे यह राज्य नहीं चाहिए ।" राजा - 'तो फिर तुझे क्या चाहिए ?"
राजकुमार - "मुझे संसार की कोई नाशवान वस्तु नहीं चाहिए । जब तक अज्ञानान्धकार में भटकता था, तब तक मैं इन सांसारिक पदार्थों को पाने के लिए लालायित रहता था, परन्तु अब मेरे अन्तःकरण में ज्ञान का प्रकाश हो गया है । अन्तरात्मा के प्रकाश के समक्ष इन हीरे-मोती आदि का प्रकाश फीका पड़ जाता है। फिर आत्मा के प्रकाश के सिवाय दूसरे किसी भी बाह्य प्रकाश की जरूरत नहीं रहती ।"
यह है अज्ञानवश हुई कामपरायणता को छोड़कर सम्यग्ज्ञानवश अकामपरायणता के स्वीकार का चित्र !
अज्ञान से दुःख, भय, शोक आदि
अज्ञानवश प्राणी किस-किस प्रकार से दुःख, भय, शोक और संकट पाता है ? इस विषय में तरुण अर्हतर्षि आगे कहते हैं-
अण्णाणं परमं दुक्खं अण्णाणा जायते भयं । अण्णाणमूलो संसारो, विविहो सव्व देहिणं ॥ १ ॥ मिया बज्झति पासेहि, विहंगा मत्तवारणा । मच्छा गलेहि सासंति, अण्णाणं सुमहन्मयं ॥ २ ॥ जम्मं जरा य मच्चू य, सोको माणोवमाणणा । अण्णामूलं जीवाणं, संसारस्स य संतती ॥३॥