________________
अन्धकार से प्रकाश की ओर ३६ बन्धुओ !
___ अपना हृदयद्वार भी अंदर से ही खुलता है न ? बाहर से खोलने का चाहे जितना प्रयत्न करोग, व्यर्थ होगा। मैं देख रहा हूं, अधिकांश लोग अपना हृदयद्वार बिल्कुल बंद करके रखते हैं। हृदयद्वार को बंद कर वे अदर से कुडी लगा लेते हैं, फिर शिकायत करते हैं कि हमें अपना ज्ञान . नहीं हुआ।
आँखों के अंधेपन से अन्तर का अंधापन बुरा है आँखों का अंधापन इतना खराब नहीं है, किन्तु अंतर् का अधापन बहुत ही बुरा है । आँख के अंधेपन से बाहर की वस्तु नहीं दिखाई देती, उससे अन्तर् का अनुभव तो हो सकता है, परन्तु अन्तर् के अंधेपन से अंतर का कुछ भी नहीं दिखता, न समझ में आता है । कदाचित् किसी की आँख चली जाए तो अन्तश्चक्षु आत्मज्ञान-नेत्र से वह वस्तु को जान-देख सकता है, किन्तु यदि अन्तश्चक्षु ही चली जाए तो मन देहासक्ति में ही फँस जाता है । देहभाव-देहाध्यास फंसा हुआ मन न तो आत्मतत्त्व का दर्शन कर सकता है, न ही परमात्मतत्त्व का । इसलिए आत्मज्ञान के लिए अन्तर् के अंधेपन को निकालना बहुत ही जरूरी है। देहभाव के आवरण ही आत्मा को पहचानने नहीं देते, देहासक्ति की दीवार ही आत्मज्ञान में बाधक है।
अज्ञानमूलक कामना से संसार भ्रमणरूपी दुःख इसी अनुभव को तरुण अर्हतर्षि प्रकट करते हैं। इनके कथन का भावार्थ इस प्रकार है
— मैंने काम के वश होकर अज्ञानमूलक कृत्य किये हैं। अब ज्ञान.मूलक अवस्था में मेरे लिए काम से प्रेरित होकर कोई भी कृत्य करणीय नहीं है । क्योंकि अज्ञानमूलक अवस्था में जीव चातुरन्त (चतुर्गतिक) संसाररूपी अरण्य में परिभ्रमण करते रहते हैं, जबकि ज्ञानमूलक अवस्था को प्राप्त करके वे ही जीव चातुरन्त संसाराटवी की विकट राह को पार कर जाते हैं । अतएव मैंने अज्ञान का परित्याग किया और ज्ञानमूलक पथ पकड़ लिया, जिसके द्वारा मैं समस्त दुःखों का अन्त करूंगा। फिर शिव, अचल, यावत् अनन्त शाश्वत स्थान को प्राप्त करूंगी।"
आशा, तृष्णा, वासना, कामना, इच्छा आदि सब काम के ही रूप हैं. जो अज्ञान से पैदा होते हैं। अज्ञानवश मनुष्य इन आशा, तृष्णा, कामना आदि का गुलाम होकर इनके इशारों पर नाचता है। यही कारण है कि आशा, तृष्णा, वासना, कामना आदि के संकेत पर कदम उठाने वाला अज्ञानग्रस्त मनुष्य अपने लिए अन्य अनेक स्वकृत, परप्राणिकृत और प्रकृति