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३२. अमरदीप
नहीं अन्य स्थाने ज्ञान भाख्यु, ज्ञान ज्ञानीमां कलो। जिनवर कहे छे 'ज्ञान' तेने, सर्व भव्यो सांभलो ।
वस्तुतः तिजोरी, अलमारी या लायब्ररी अथवा ग्रन्थ भण्डार में पुस्तके पड़ी हों, इससे क्या ? ज्ञान पुस्तकों में नहीं है, किसी मंत्र, तंत्र या भाषा में नहीं है। वह बाजार के किसी अन्य स्थल में नहीं है। पुस्तकें आदि स्वयं सीधे ही किसी को ज्ञान नहीं दे सकतीं। तेरा ज्ञान तो तेरे में ही है। पुस्तक पौद्गलिक हैं, जबकि ज्ञान आत्म गुण है । वे निमित्त बन सकती हैं। अपना हृदयद्वार खोलो : ज्ञान प्राप्त होगा
___ तुम्हारी आत्मा का जितना उघाड़ होगा, उतना ही निर्मल शुद्ध ज्ञान तुममें प्रकट होगा । तुम्हारे आत्म-गुणों तथा आत्म-शक्तियों का ज्ञान पाने के लिए अन्तरंग द्वार ही खोलना है । वह जितना अच्छा खुला होगा, उतना ही आत्मज्ञान होगा।
प्राचीनकाल में एक नगर में चित्र-प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था। उसमें विविध चित्र पंक्तिबद्ध सुशोभित हो रहे थे। चित्रों की सजावट से प्रदर्शनी आकर्षक बनी हुई थी। एक राजा उस प्रदर्शनी को देखने आया। वह अनेक चित्रकारों के चित्र देख रहा था। अकस्मात् उसकी दृष्टि एक चित्र पर गई । वह चित्र यों तो एक सादे दरवाजे का था। परन्तु इतना मोहक कि साक्षात् दरवाजा हो प्रतीत होता था । चित्रकार ने इसे ऐसी खूबी से चित्रित किया था कि दर्शक भ्रम में पड़ जाय । अतः राजा ने उस चित्र के निर्माता चित्रकार से कहा- "तुम्हारे चित्र में एक बड़ी भूल दिखाई देती
आश्चर्यचकित होकर चित्रकार ने पूछा -- "भूल ! कौन-सी भूल ?" आगन्तुक राजा ने कहा --- "इस दरवाजे को खोलने के लिए कोई हेडल तो तुमने लगाया नहीं । हेंडल के बिना दरवाजा कंसे खुलेगा ?' चित्रकार यह सुनकर मौन रहा । राजा ने फिर पूछा-'यह है न तुम्हारी भूल ?'
चित्रकार ने कहा- "नहीं राजन ! यह दरवाजा, जो सादा दिखाई देता है, वह तो हृदय का द्वार है। इसी की कल्पना से मैंने यह चित्र बनाया है। हृदय द्वार तो अंदर से खुलता है, बाहर से नहीं। इसीलिए तो मैंने हेडल अंदर के भाग में कल्पना से बनाया है। जिससे हेंडल बाहर नहीं दिखाई देता।"
चित्रकार के द्वारा किये गये स्पष्टीकरण से राजा को सन्तोष हुआ।