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________________ अन्धकार से प्रकाश की ओर ३१ ज्ञान के दो प्रकार है- एक है विषय का प्रतिभास अर्थात् पदार्थस्पर्शी ज्ञान; और दूसरा है - आत्मस्पर्शी ज्ञान विषयों से सम्बन्धित ज्ञान तो स्कूल-कालेजों में भी मिल सकता है, किताबों, रेडियो, पत्र-पत्रिकाओं आदि से भी प्राप्त होता है, किन्तु आत्मस्पर्शी ज्ञान स्कूल-कालेजों, किताबों, रेडियो, पत्र-पत्रिकाओं से सीधा नहीं मिलता, भाड़े पर नहीं मिलता; उसके लिये अन्तर् में डुबकी लगानी पड़ती है । स्वयं को जानना पड़ता है । खुद को खोना पड़ता है, तभी खुदा को पाया जाता है । ऐसे आत्मस्पर्शी ज्ञान वाला मानव दुनिया में सदैव प्रसन्न रहता है, और दुनिया से विदा होते समय भी प्रसन्नतापूर्वक विदा होता है । परन्तु आश्चर्य तो यह है कि मैं कौन हूँ ? मेरा परिचय क्या है ? मैं कहाँ से आया हूं ?, मेरा असली ठिकाना कहाँ है ? इस बात का भी ज्ञान अधिकांश लोगों को नहीं है । जहाँ व्यक्ति अपने-आप को ही भूल गया है, वहाँ दूसरे को तो कहाँ से पहचानता ? मानव का ज्ञान प्रायः अज्ञान के आवरण के नीचे ढक गया है । इसी कारण विवेकमूढ़ बन जाता है, उस आवरण को हटाकर मनुष्य अपनी आत्मा की जान-पहचान कर सकता है। गीता में कहा है- " अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः । " हीरे पर आया हुआ आवरण हट जाए, तभी उसका प्रकाश फैलता है, इसी प्रकार आत्मा पर मन और बुद्धि, शरीर और इन्द्रियों की तरंगों का आया हुआ आवरण हट जाए तो तुरन्त आत्मा का प्रकाश फैल सकता है । अज्ञानी इन तरंगों को बढ़ाता है, जबकि ज्ञानी इन तरंगों को घटाता है शान्त करता है । पानी के हौज के नीचे एकदम तले पर पड़ी हुई अंगूठी जलतरंगें हों तो नहीं दिखायी दे सकती; वह तभी दिखाई दे सकती है, जब तरंगें शान्त हों, पानी स्वच्छ हो जाए । इसी प्रकार आत्मा के अंदर रही हुई शक्तियाँ, निजी गुण स्वस्वरूप आदि तभी दिखाई दे सकते हैं, जब विकल्पों की तरंगें शान्त हों, चित्त निर्मल - शुद्ध हो । जैसे तरंगों से रहित, शान्त जल में मनुष्य अपना प्रतिबिम्ब देख सकता है, वैसे ही विकारों और विकल्पों की तरंगों से रहित शुद्धचित्त में - 'मैं कौन हूं' इत्यादि आत्मभान हो सकता है । यह ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है । वास्तव में यह ज्ञान कहीं बाहर से लाना नहीं पड़ता और न ही कहीं बाहर से मिलता है, यह तो अपने (आत्मा) में ही पड़ा है, केवल इसे प्रकट करना है । श्रीमद् रायचन्द्रजी ने कहा है नहीं ग्रन्थ मांही ज्ञान भाख्यु, ज्ञान नहीं कवि चातुरी । नही मंत्र-तंत्र ज्ञान भाख्यो, ज्ञान नहीं भाषा ठरी ॥
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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