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________________ ३० । अमरदीप वास्तव में अज्ञान में सत्य भी असत्यरूप दिखाई देता है । जो आत्मा के निजी गुण हैं, अज्ञानी जीव उनमें परायेपन का अनुभव करता है। सही माने में जो विकास के साधन हैं, उन्हीं में अज्ञानग्रस्त जीव विनाश की छाया देखता है । अतएव अज्ञानी जीव अपने लिए. जानबूझ कर कई दुःख मोल ले लेता है। यही कारण है कि तरुण अर्हतर्षि गाथापतिपुत्र २१वें अध्ययन में अज्ञानदशा की व्यथाकथा कहते हैं "णाहं पुरा किंचि जाणामि सव्वलोकमि गाहवति-पुत्तेण तरुणेण अरहता इसिणा बुइतं । ---- 'मैं पहले इस विशाल जगत् में कुछ भी नहीं जानता था। इस प्रकार गाथापतिपुत्र तरुण अर्हतर्षि बोले।" प्रस्तुत अर्हत-ऋषि के सम्बन्ध में दो विशेषण बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं- तरुण और गाथापतिपुत्र । तरुण-अवस्था में प्रायः मानव रमणीय विषयभोगों के प्रवाह में बह जाया करता है। उस समय इन तरुण ऋषि ने अपने जीवन को देखा कि मैं तो अज्ञानावस्था में पड़ा हूं। इसी अज्ञान के कारण मैं दुख पा रहा है । बस जाग उठे और भोग की वय में योग की ओर उन्होंने अपने जीवन के प्रवाह को मोड़ दिया । दूसरा विशेषण है 'गाथा. पतिपूत्र'. जो पारिवारिक सम्पन्नता को सूचित कर रहा है। उस यौवनवय में अभाव से पीड़ित होकर इस तरुण ने त्यागमार्ग स्वीकार नहीं किया था। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न परिवार था, परिवार में भी वह सबका प्रिय था, लक्ष्मी के पायलों की झंकार भी उसकी आत्मा को वासना से बाँधने के लिए पर्याप्त थी। किन्तु अज्ञानदशा का जब सही स्वरूप उन्होंने समझा तो त्याग-वैराग के मार्ग को उन्होंने अपना लिया। आगे वे अपनी अज्ञानदशा और ज्ञानदशा के अनुभवों के पृष्ठ खोलते हुए कहते हैं। जिसका भावार्थ इस प्रकार है "पहले मेरा जीवन अज्ञानमूलक था। मैं अज्ञानान्धकारवश न ही (वस्तुस्वरूप) जान पाता था, न देख पाता था, न ही मैं सम्यक् प्रकार से वस्तुतत्त्व को जानता था, और न ही उसका अवबोध कर पाता था । किन्तु जब से मुझे अपने-पराये की समझ आई, तब से मेरी आत्मा ज्ञान के प्रकाश से आलोकित है। अतः अब मैं (वस्तुस्वरूप को) जानता हूँ, वस्तुतत्त्व को सम्यक् प्रकार से जानने लगा हूं, यथार्थ अवबोध भी रखता हूँ।" आत्मस्पर्शी ज्ञान हो वास्तविक ज्ञान __ अज्ञानावस्था में व्यक्ति अपने आत्मगुणों को भूलकर आत्मा के विभावों या परभावों को अपने समझने लगता है।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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