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अन्धकार से प्रकाश की ओर | २६
का, नफरत का सांप फन फैला रहा है, कपट का बिच्छू डंक मार रहा है । यह संसार तो बड़ा विचित्र है । दुनिया को देखकर मेरा चैन सकून सब काफूर हो हो गया ।
संत ने कहा- अब यह दूसरा शीशा ले और इसे जरा अपने दिल की तरफ मोड़कर देख | दिल की तरफ मोड़ा, तो उसके मन में भी वही कपट, बेईमानी, क्रोध, अहंकार के कीड़े कुलकुलाते नजर आये । बाबा ने कहा- यह दुनिया ही ऐसी है । जहाँ देखो कपट, धूर्तता, अहंकार के नाग फुसकार रहे है, परन्तु जब स्वयं को देख लोगे तो फिर दूसरों से भय नहीं रहेगा ।
आज का विज्ञान सिर्फ दूसरों को देखना सिखाता है जबकि अध्यात्म -- ज्ञान का शीशा खुद को देखना सिखाता है ।
भौतिक ज्ञान पदार्थों को अपना मानता है । जबकि आत्मज्ञान सम्यग्ज्ञान पदार्थों को पराया मानता है । अतः भौतिक ज्ञान से प्राप्त हुए साधन वन्धनरूप बनते हैं, जबकि आत्मज्ञान से प्राप्त हुए साधन बन्धन से मुक्त बनाते हैं । भगवान् महावीर ने अपनी अन्तिम देशना में प्रत्येक साधक को सही दिशा में पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देते हुए कहा है-
णाणस्स सव्वस्स पगासणाए अन्ना - मोहस्स विवज्जणाए ।
'अज्ञान और मोह ( के अंधेरे) को दूर करने के लिए और पूर्णज्ञान के प्रकाश के लिए पुरुषार्थ करो ।'
अज्ञानवाद से लाभ या हानि ! प्राचीनकाल में 'अज्ञानवाद' नामक एक मत प्रचलित था । उसकी यह मान्यता थी कि प्रत्येक वस्तु का ज्ञान होने से मनुष्य को दुःख एव आर्त ध्यान होता है, मोहवश उस भौतिक वस्तु को पाने की लालसा उठती है, परस्पर प्रतिस्पर्द्धा जागती है, जिससे जीवन में रागद्वेष और मोह पैदा होता है । इसलिये समस्त दोषों के कारणभूत ज्ञान की अपेक्षा अज्ञान ही श्रेयस्कर है, जिसमें कोई झंझट नहीं, प्रतिस्पर्द्धा नहीं, मस्ती से सोने से दिन और चाँदी सी रातें कटती हैं ।
परन्तु ज्ञानी पुरुषों ने अज्ञानवाद को घोर अंधेरी रात बताया है, जिसमें हीरा और कंकर एक-सा देखता है । अंधेरे में ही हीरे की कीमत न जानकर उसे छोड़ दिया जाता है और कंकर को ही हीरा समझकर उसे अपनाया जाता है | अज्ञान वस्तु के स्वरूप का सच्चा भान नहीं होने देता । मोती की सच्ची माला गर्दन में पड़ी हो, फिर भी अज्ञानी व्यक्ति पिटारे में या बाहर में ढूढ़ता है ।