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________________ २४ अमरदीप शुभाशुभ कर्म (पुण्य-पाप) को मानता है तथा कर्मबन्ध को काटने और अपना शुद्ध पूर्ण स्वरूप को प्राप्त करने के लिए रत्नत्रय की साधना तथा तपस्या आदि क्रिया को मानता है। एक कवि कहता है विचारों में सुविचार है आत्मवाद । सभी धर्मों का सार है आत्मवाद ॥ध्र व।' यही बन्ध मुक्ति को गम्भीरतम, व्यवस्था का आधार है। यही आस्तिकता का पूर्ण निष्कर्ष है, वृथा अन्य बातों का संघर्ष है। पुनर्जन्म और कर्म-सिद्धान्त को, तथा माने अत्यन्त दुखान्त को। यह आकर महाकार है आत्मवाद ।। . परन्तु सर्वोच्छेदवादी इन सब का अपलाप करता है। नैयायिक आदि कुछ दार्शनिक यह मानते हैं कि "आत्मा के समस्त गुणों का उच्छेद हो जाना ही मोक्ष है ।'' भला ऐसा मोक्ष किस काम का जिसमें आत्मा के सभी गुण लुप्त हो जाएँ, फिर गुणों के उच्छेद से आत्मा कहाँ रहेगा ? उसका भी सर्वथा उच्छेद हो जाता है। आत्मा के गुण-धर्मों में से एक को भी स्वीकार न करने वाले ऐसे दार्शनिक भी सर्वोत्कटवादी हैं। .. नास्तिकवाद का एक और प्रकार अब इस नास्तिकवाद के विषय में अर्हत्-ऋषि विशेष व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। उनके कथन का भावार्थ यह है "ऊपर से पदतल तक और नीचे से मस्तक के केशाग्र तक आत्मा के पर्याय हैं। शरीर की त्वचा-पर्यन्त जीव है । यही जीव का जीवित (जीवन) है। उसको ही जीवित कहा जाता है। जैसे जले हुए बीजों में फिर से अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता। इसी प्रकार शरीर के नष्ट हो जाने पर पुनः शरीर की उत्पत्ति नहीं हो सकती।" ___ नास्तिकवाद का एक प्रकार यह है कि कुछ अनात्मवादी दार्शनिक स्थूलग्राही होते हैं। उनका कहना यह है कि पैर के तलुओं से केशाग्र तक आत्मा है, यही जीव है। इस प्रत्यक्ष दृश्यमान देहरूप आत्मा के सिवाय और कोई आत्मा नाम की स्वतन्त्र वस्तु नहीं है। ऐसे देहात्मवादियों के अनुसार भव परम्परा सम्भव नहीं है। इसके लिए वे यह तर्क देते हैं कि बीज से अकुर पैदा होता है । जब बीज जल गया तो अंकुर कैसे फूटेगा ? और वह वृक्ष कैसे होगा ? अतः अगले जन्म का बीज तो यह शरीर है। जब शरीर ही जल गया तो अगला जन्म कैसे सम्भव है ?
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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