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सावधान ! इन नास्तिकवादों से | २३ ( उत्तर है - ) सर्वोत्कट वह है, जो समस्त संभावित भावों ( पदार्थों) को सर्वथा असत्य (असत्) मानता है । ( कहता है - ) सर्वथा सर्वकाल में सब प्रकार से पदार्थ - सार्थ का अभाव है । इस प्रकार जो सर्व विच्छेद की बात करता है; वह सर्वोत्कट है ।
सर्वोत्कटवादी सर्वोच्छेदवादी होते हैं । वे आत्मा और उसके समस्त पर्यायों के अस्तित्व से इन्कार करते हैं। जिसे यह भी पता नहीं है कि मैं कौन हूं? मेरा स्वरूप क्या है ? वह साधना के क्षेत्र में क्या गति-प्रगति करेगा ? आध्यात्मिक साधना का प्रथम सोपान - आत्मतत्त्व की स्वीकृति है । जिस व्यक्ति को आत्मा पर विश्वास नहीं, उसे परमात्मा पर भी विश्वास नहीं होता, न ही आस्रव, संवर, बन्ध, मोक्ष आदि आत्मा से सम्बन्धित तत्त्वों पर वह विश्वास करता है । ऐसा व्यक्ति सर्वोच्छेदवादी है । श्रीमद् रायचन्द जी ने ठीक ही कहा है
"हूँ कोण छु ? क्यांथी थयो ? शुं स्वरूप छं मारूं खरू ? कोना सम्बन्धे वगणा छे ? राखू के ए परिहरू ?"
यही बात आचरांगसूत्र में कही गई है -
जो आत्मा को नहीं मानता है, वह आत्मा के सर्वोच्च शुद्ध रूप सर्व कर्ममुक्त परमात्मा को भी नहीं मानता, न ही कहाँ से आया ? कहाँ जाऊँगा ? इसका विचार करता है, 1 न ही वह यह सोचता है कि वर्तमान स्थिति में किससे बंधा हूं ? इससे कँसे छूटगा ? ऐसा व्यक्ति साधना में कैसे प्रवृत्त हो सकता है और साध्य को भी कैसे प्राप्त कर सकता है ?
आस्तिकवाद की मान्यता आचरांगसूत्र में आस्तिकवाद को प्ररूपणा करते हुए कहा गया है— " से आयावाई, लोयावाई, कम्मावाई, किरयाबाई "2
जो आत्मवादी होता है, वह लोकवादी होता है, जो लोकवादी होता है वह कर्मवादी होता है, जो कर्मवादी होता है, वह क्रियावादी होता है।
अर्थात् - जो आस्तिक होता है, वह आत्मा को उसके सर्वगुणों से युक्त तथा यथार्थ रूप में मानता है, वह लोक-परलोक, पुनर्जन्म तथा
१ इहमेगेसि णो सण्णा भवइ - के हं आसी ? के वा इओ चुओ इह पेच्च भविस्सामि । — आचारांगसूत्र श्र. १, अ. १, सू. १/२
२ आचारांग सूत्र श्रु. १, अ. १, सू. ५ ।