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________________ २२ अमरदीप जहाँ आत्मा का अस्तित्व ही नहीं माना जाता, अथवा आत्मा को ही एकान्त अनित्य माना जाता है, वहाँ दया या करुणा कौन करेगा ? वस्तुतः स्तेनोत्कटवादी दूसरे के मूल ग्रन्थों में से कुछ उद्धृत करता है, लेता है, और उस पर अपनेपन की मुहर छाप लगाकर गर्वोक्ति करता है । इस प्रकार वह कृतज्ञता और समता का उच्छेद करता है। देशोत्कटवाद की परिभाषा अब चौथे देशोत्कटवाद की लीजिए। उसके सम्बन्ध में अर्हषि कहते हैं - प्रश्न – 'से किं तं देसुक्कले ? उत्तर-देसुक्कले णाम जे णं अस्थिन्न एस इति सिद्ध जीवस्स अकत्तादिएहि गाहेहिं देसुच्छेयं वदति । से तं देसुक्कले ॥४॥ (प्रश्न है-) भगवन् ! देशोत्कट क्या है ? (उत्तर है-) देशोत्कट उसे कहते हैं, जो आत्मा के अस्तित्व को मानकर भी अकर्ता, भोक्ता आदि बताता है। इस प्रकार जो आत्मा के एकदेश का उच्छेद करता है, वह देशोत्कट है। . कुछ दार्शनिक आत्मा के अस्तित्व को तो मानते हैं, परन्तु उसके स्वरूप के सम्बन्ध में उनका मतभेद है । जैसे-सांख्यदर्शन आत्मा को मानता हुआ भी उसे अकर्ता मानता है । अर्थात्-वह आत्मा को नहीं 'प्रकृति' को कर्ता मानता है । यद्यपि जैन दर्शन भी निश्चयदृष्टि से आत्मा पुद्गलादि का कर्ता नहीं मानता है, किन्तु निश्चयदृष्टि स्वभाव परिणति (शुद्ध परिणति) का कर्ता तो आत्मा को मानती है। सांख्यदर्शन आत्मा के भोक्तत्व को तो स्वीकार करता है, किन्तु उसके कर्तृत्वरूप को स्वीकार नहीं करता, यही देशोत्कटवाद का स्वरूप है । सर्वोत्कटवाद : सर्वथा अपलापक - अब पाँचवें उत्कट को लीजिए। यह सर्वोत्कट है। अर्हतर्षि इसका स्वरूप बताते हुए कहते हैं प्रश्न-'से कि तं सव्वुक्कले ?' उत्तर-'सबुक्कले णामं जे णं सव्वतो सम्व-संभवाभावा णो तच्च सव्वतो सव्वहा सव्वकालं च णस्थित्ति सव्वच्छेदं वदति । से तं सव्वुक्कले । (प्रश्न है-) 'भगवन् ! सर्वोत्कट क्या है ? । १ अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कपिलदर्शने ।।
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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