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________________ १८ | अमरदीप जहाँ तक सुख से जीने का प्रश्न है, कोई भी दर्शन या धर्म इस बात से इन्कार नहीं कर सकता । परन्तु क्या क्षणिक सुख हो वास्तविक सुख है अथवा और कोई शाश्वत आत्मजनित सुख है ? मैं इसकी चर्चा में अभी गहरा उतरना नहीं चाहता । परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने पर जो पदार्थ जनित सुख है, वह भी पूर्वजन्म के प्रबल पुण्य के बिना नहीं मिल सकता । यदि कोई व्यक्ति दरिद्र है, दीन-हीन है, अभावपीड़ित है, तो ऐसी स्थिति में वह कैसे जी सकेगा ? जिसके घर में तो फाकाकशी चल रही है, अन्न और वस्त्र के अभाव में उसके स्त्री- बच्चे बिलख रहे हैं, रहने को मकान नहीं है, वह कैसे सुख से जीयेगा ? इस पर चार्वाक का कहना है कि अगर तुम्हारे पास सुख के साधन नहीं हैं तो किसी से कर्ज ले लो और मजे से घी पीओ, अर्थात् - सुख-साधन लाकर उनका सेवन करो । परन्तु प्रश्न यह है कि पहले तो ऐसे आदमी को कर्ज देगा कौन ? यदि भलमनसाहत के तौर पर कोई कर्ज दे भी देगा तो उसे चुकाना तो पड़ेगा? ऋणदाता जब कर्ज लिया हुआ पैसा वसूल करने आएगा, तब क्या किया जाएगा ? इसका उत्तर उसने यह दिया कि - 'घी खा-पीकर पुष्ट और बलिष्ठ बनो और जब कोई ऋणदाता पैसा माँगने आए तो उसे लट्ठ बता दो। उसको लाठी से उत्तर दो, ताकि दुबारा वह तुम्हारी तरफ देखें भी नहीं ' पापभीरु व्यक्ति ने पूछा - 'यह ठीक है कि यहाँ तो लाठी फैसला कर देगी, परन्तु यह जीवन लीला समाप्त होने पर जब यहाँ से दूसरे लोक जायेंगे, वहाँ कौन फैसला करने आयेगा ? इस पाप का फल अगले जन्म में भोगना पड़ेगा न ?' इस पर चार्वाक ने कहा- 'बस, यही तो तुम्हारी मूर्खता है । कैसा परलोक और कौन-से पाप का फल ? ये सब झूठे सपने हैं । वास्तव में शरीर की राख होने के साथ-साथ शरीरी (जीव ) की भी राख बन जाती है । फिर कौन कहाँ जाता है और कहाँ आता है ? पाप-पुण्य सब यहीं भोग लिये आते हैं ।' इस प्रकार के मत का जैनदर्शन 'तज्जीव- तच्छरीरवाद' के नाम से उल्लेख करता है। देहात्मवाद मानने के दुष्परिणाम इस प्रकार के देहात्मवाद में देह को ही सब कुछ मान लेने पर भवपरम्परा का स्वतः उच्छेद हो जाता है, क्योंकि देह की तो सबके सामने
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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