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१६ ! अमरदीप
दण्ड-उत्कट का स्वरूप
. इन पाँच उत्कटों में सर्वप्रथम दण्ड-उत्कट है। उसका रूप प्रश्नोत्तररूप में अर्हत-ऋषि इस प्रकार बताते हैं
प्रश्न--से किं तं दंडुक्कले ?
उत्तर --दंडुक्कले नाम जेणं दंडदिठें तेणं आदिल्लमज्झऽवसाणाणं पण्णवणाए समुदयमेत्ताभिधाणाइ । णत्थि सरीरातो परं जीवोत्ति । भवगतिवोच्छेयं वदति । से तं दंडुक्कले ॥१॥
प्रश्न है -- 'भगवन ! दण्ड-उत्कट क्या है ?'
उत्तर इस प्रकार है --- 'दण्ड-उत्कट उसे कहते हैं, जैसे दण्ड के आदि, मध्य और अन्त दिखाई देते हैं, उसी प्रकार जिनकी प्ररूपणा आदि, मध्य और अन्त के रूप में की जाती है, उस (पंचभूतात्मक) समुदायमात्र का नाम ही शरीर है । शरीर से भिन्न कोई आत्मा (जीव) नहीं है। इस प्रकार जो भवपरम्परा के उच्छेद की बात कहता है, वह दण्डोत्कट है।'
कुछ दार्शनिक दण्ड के दृष्टान्त से देहात्मवाद का प्रतिपादन करते हैं। उनका कहना है कि जैसे डडा सीधा होता है, उसका प्रारम्भ का सिरा और अन्त का सिरा तथा बीच का हिस्सा साफ दिखता है। इसी तरह हम भी सीधी और साफ बात कहते हैं । जो हमारी आँखों से दण्ड की तरह . सीधा और स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, वह है शरीर । शरीर के जन्म, मृत्यू
और मध्य की तीन अवस्थाएँ (बाल्य, युवा और वृद्धत्व) स्पष्ट प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं। जिस प्रकार दण्ड के आदि, मध्य और अन्त में रही हई ग्रन्थियाँ ही उसके विकास की हेतु हैं, इसी प्रकार शरीर के आदि, मध्य और अन्त में रही हुई विशेष ग्रन्थियाँ ही उसके विकास की हेतु हैं। इसलिए दण्ड के समान शरीर ही प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर जीवनसर्वस्व है। यही दण्डउत्कट है।
दण्ड-उत्कटवादियों से पूछा जाता है कि शरीर से भिन्न कोई (आत्मा नामक) तत्त्व नहीं मानते हो तो इन्द्रियाँ और मन जो अपने-अपने विषयों में दौड़ते हैं, तथा अंगोपांगों में जो हलचल होती है, इन सबका क्या कारण है ? इसके उत्तर में वे कहते हैं
समुदयमात्रमिदं कलेवरम् . -चार्वाक दर्शन यह जो शरीर दिख रहा है वह पाँच भूतों का समुदायमात्र है। यही जीवन है। इन्हीं पाँच भूतों के एकत्रित होकर मिलने से शरीर में चेतना