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१४ | अमरदीप
रूपों को प्रस्तुत करते हैं। इसे वे उत्कलवाद या उत्कटवाद ने नाम से पुकारते हैं । उन्होंने बताया -
पंच उक्कला पण्णत्ता,
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तंजहा—१— दंडुक्कले, २ – रज्जुक्कले, ३ – तेजुक्कले, ४ – देसुक्कले, ५- सव्वक्कले ।
अर्थात् - पाँच प्रकार के उत्कल बताए गए हैं । यथा - ( १ ). दण्डउत्कल, (२) रज्जु-उत्कल, (३) स्तेन-उत्कल, (४) देश-उत्कल और (५) सर्व-उत्कल ।
स्थानांग सूत्र में इन्हीं पाँच उत्कलों का इसी क्रम से प्रतिपादन किया गया है ।
'उत्कलवाद बनाम प्रत्यक्षवाद
उत्कल या उत्कट का अर्थ यों तो किसी भी टीकाकार ने स्पष्ट नहीं किया है । परन्तु हमारी दृष्टि से उत्कट का अर्थ है - जो वीतराग ऋषियों द्वारा प्रणीत शास्त्रों को - शास्त्र वाक्यों को बिना सोचे-विचारे काटता है, खण्डन करता है, अथवा उनका अपलाप करता है, वह उत्कट या उत्कल है । भारतीय धर्मों और आस्तिक दर्शनों में एक सिद्धान्त-सूत्र आता है - 'आर्ष संदधीत, न तु विघट्टयेत् '
अर्थात्-ऋषियों द्वारा प्रणीत वाक्यों की संगति बिठाकर जोड़ना चाहिए, तोड़ना या विघटन नहीं करना चाहिए। ये उत्कलवादी या उत्कटवादी केवल प्रत्यक्षप्रमाण को मानकर शेष प्रमाणों को मानने से इन्कार करते हैं । जब इनसे पूछा जाता है कि तुम्हारे दादा परदादा को तुमने देखा है ? तो वे कहते हैं नहीं देखा । फिर तो प्रत्यक्षप्रमाण से यही सिद्ध होता है कि वे नहीं थे। जब वे नहीं थे, तो तुम्हारे पिता कहाँ से आए ? तुम कैसे आए ? अत. अन्त में घूम-फिर कर उन्हें अनुमान प्रमाण को मानना ही पड़ता है ।
इसी प्रकार प्रत्यक्षवादियों के समक्ष कई आपत्तियाँ आती हैं, जिनमें उन्हें अनुमान या परोक्ष प्रमाण को मानना ही पड़ता है । जैसे किसी प्रत्यक्षवादी के पुत्र के वियोग का समाचार उसकी पत्नी हजारों माइल दूर से लिखकर भेजती हैं । जब प्रत्यक्षवादी उस पत्र को पढ़ता है तो एकदम शोक में क्यों डूब जाता है ? क्यों रोने और आंसू बहाने लगता है, जबकि
१ पंच उक्कला पण्णत्ता, तं० दंडुक्कले रज्जुक्कले इत्यादि ।
- स्थानांग स्था० ५ उ०३