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१२ | अमरदीप हो। आर्यत्व की आधारशिला सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप त्रिवेणी है । ये आत्मा के निजी गुण हैं, ये ही आत्मा को ऊँचा उठाते हैं। कषायों की मन्दता, विषयों की उपशान्तता, तप, त्याग और संयम की आराधना, रत्नत्रय की साधना, ये सद्गुण ही मनुष्य को अनार्यत्व से हटा कर आर्यत्व में स्थापित कर देते हैं। अर्हतर्षि आर्यायण ने परम आर्यों का सत्संग जीवन को बदलने हेतु अधिक सक्षम बताते हुए कहा है
आरिय णाणं साहू, आरिय साहू दंसणं ।
आरियं चरण साहू, तम्हा सेवयं आरियं ॥५॥ आर्य का ज्ञान श्रेष्ठ है, आर्य का दर्शन श्रेष्ठ है तथा आर्य का चारित्र श्रेष्ठ है । अतएव आर्य की ही उपासना करो। निष्कर्ष यह है कि जिस ज्ञान, दर्शन और चारित्र में आर्यत्व है. वही सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र
सचमुच, हरिकेशबल जैसी महान आत्माएँ नाम से आर्य नहोकर भी अपने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के बल से अथवा अपने विचारों और कार्यों से आर्य परम आर्य कहलाती हैं ।
अब रहे चतुर्थ भंग के अधिकारी। ऐसे मनुष्य नाम से भी अनार्य होते हैं और विचारों तथा कार्यों (भावों) से भी सदा अनार्य बने रहते हैं। ऐसे लोगों को चाहे जितना सदुपदेश मिले, उनका जीवन नहीं सुधरता । वे जीवन के अथ से इति तक अनार्य ही बने रहते हैं। वे अनार्य कुल-जाति में ही जन्म लेते हैं और जिन्दगी भर अनार्यकर्म ही करते रहते हैं। वे सदैव अज्ञानान्धकार में ग्रस्त रहते हैं, जन्म-मरण के चक्र में फंसे रहते हैं। वे भवसागर से पार नहीं हो सकते।
बन्धुओ ! इन चारों भगों में से पहला और तीसरा ये दो भंग सच्चे आर्य के हैं, दूसरा भंग नाम के हो आर्य का है, और चौथा भंग तो अनार्य का ही है। इस पर से आप आर्य और अनार्य का यथार्थ विवेक करके अपने जीवन को आर्यत्व से ओतप्रोत बनाने का पुरुषार्थ कीजिए, यही अहंतर्षि आर्यायण का सन्देश है।