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१० अमरदीप
ऐसा अनार्य व्यक्ति दूसरों की उन्नति और वैभव देखकर मन ही मन ईर्ष्या से जलता रहता है। ऐसे लोग नाम के ही आर्य हैं, वस्तुतः वे अनार्य ही हैं । ऐसे व्यक्ति यदि किसी परम आर्य (साधु) पुरुष के सम्पर्क में भाते हैं, तो भी अपनी अनार्यवृत्ति नहीं छोड़ते । अपने भोगविलास, विषयासक्ति, पाशविकता आदि दुर्गुणों को छोड़ने के लिए बार-बार प्रेरणा करने पर भी तैयार नहीं होते । महामुनि चित्त और सम्भूत पांच जन्मों तक सहोदर के रूप में साथ-साथ रहे, किन्तु छठे भाव में दोनों बिछुड़ गए। संभूत का जीव साधु-जीवन में निदानकृत तप के कारण ब्रह्मदत चक्रवर्ती बना और चित्त का जीव आर्यधर्म के उत्तम संस्कार-सम्पन्न जाति कुल में जन्म लेकर साधु
बना ।
परन्तु एक बार ब्रह्मदत्त को अपने पूर्वजन्म का स्मरणज्ञान हो गया, अपने भाई से इस जन्म में पृथक् होने के कारण उनसे मिलने के लिए आतुर हो गया । आखिर बहुत प्रयत्न के बाद चित्त महामुनि से ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का मिलन हुआ । चित्त महामुनि ने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को काम भोगों को त्यागने का बहुत उपदेश दिया, मगर ब्रह्मदत्त पर उसका बिलकुल असर न हुआ। अतः अन्त में चित्त महामुनि को कहना पड़ा ।
जइ तंसि भोगे चइउ असत्तो, अज्जाई कम्माई करेह राय । धम्मे ठिओ सव्वपाणुकपी तो होहिसि देवो इओ विउब्वी ! हे राजन् ! यदि तू इन कामभोगों को छोड़ने में स्वयं को असमर्थ पा रहा है तो कम से कम आर्यकम तो कर । शुद्ध धर्म में स्थित होकर प्राणिमात्र पर अनुकम्पा करोगे तो भी ( इस प्रकार के आयंकर्म से तुम यहाँ से शरीर छोड़कर देव तो बन ही जाओगे । परन्तु जाति- कुलादि से आय होकर भी ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आर्यकर्म को नहीं अपना सकने के कारण मरकर नरक का अधिकारी बना । इसीलिए अहंतर्षि आर्यायण ने ऐसे लोगों आर्यत्व का पथ अपनाने की स्पष्ट प्रेरणा दी है
संधिज्जा आरियं मग्गं कम्म जं वा वि आरियं । आरियाणि य मित्ताणि, रित्तमुट्ठिए ||३|| जे जणा आरिया णिच्चं, कम्मं कुव्वंति आरियं । आरिएहि य मित्त हि मुच्चति भवसागरा ॥४॥
इसीलिए मानव जन्म, उत्तम कुलादि को पाये हुए मानव को चाहिए कि वह आर्यमार्ग को ग्रहण करे, और जो आर्यकम हैं, उन्हें ही करे; तथा आर्य मित्रों की संगति से आर्यत्व का पालन करने के लिए उद्यत रहे ।