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अमरदीप
अर्थात्-चार प्रकार के पुरुष शास्त्र में बताए गए हैं, वे इस प्रकार हैं
(१) जो नाम से भी आर्य होते हैं और विचारों (भावों) से भो आर्य होते हैं।
(२) जो नाम से आर्य होकर भी भावों (विचारों एवं कार्यों) से अनार्य बन जाते हैं।
(३) जो जाति-कुलादि से अनार्य होने पर भी भावों से आर्य होते हैं।
(४) चौथे प्रकार के पुरुष ऐसे हैं, जो नाम से भी अनार्य हैं, और भावों से भी सदा अनार्य बने रहते हैं।
इनमें सच्चे माने में आर्य प्रथम भंग के व्यक्ति हैं। जैसेश्रीराम आदि चारों भाई आर्यक्षेत्र, आर्यकुल-जाति एवं आर्यभाषा आदि में जन्म लेते हैं, और उसी के अनुरूप अपने विचार, संस्कार और जीवन को उच्च बनाते हैं । वे सप्त कुव्यसनों (जुआ, चोरी आदि निन्द्य कर्मो) को नहीं करते । वे शिष्ट भाषा बोलते हैं, आजीविका के लिए व्यवसाय भी अल्पारम्भी, सात्विक करते हैं; शिल्प ऐसा अपनाते हैं जो परम्परा से धर्मानुप्राणित हो । वे धर्मानुरूप अपने जीवन को ढालते हैं। वे आचरण द्वारा कदापि अपने जाति कुल को कलंकित नहीं होने देते। अनेकानेक कष्ट सहकर भी वे अपने उच्च गुणों एवं उन्नत विचार-आचार को नहीं छोड़ते । आचार्य चाणक्य ने कहा है
छिन्नोऽपि चन्दनतरुन जहाति गन्धं,
वृद्धोऽपि वारणपतिर्न जहाति लीलाम् । यंत्रापितो मधुरिमां न जहाति चेक्ष:,
क्षीणोऽपि न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः । जिस प्रकार चन्दन का पेड़ काटे जाने पर भी सुगन्ध को नहीं छोड़ता, बूढ़ा हो जाने पर भी गजराज अपनी मस्त चाल-ढाल (लीला) नहीं छोड़ता, कोल्हू में पेरी हुई ईख अपनी मिठास को नहीं छोड़ती; उसी प्रकार धन, वैभव या शरीर-सम्पदा से क्षीण हो जाने पर भी कुलीन व्यक्ति शीलगुणों का परित्याग नहीं करता। वह पापाचरण से कोसों दूर रहता है। अपने विरोधी के प्रति भी उसके हृदय में प्रतिशोध की भावना नहीं रहती, वह विरोधी व्यक्ति को भी शान्ति से समझा कर आर्य पथ पर लाने का प्रयत्न करता है।