________________
२६० अमरदीप
इसलिए दयाशील (दयार्थी) मुनि प्राणियों पर दया के लिए तेलपात्रधारक की भांति एकाग्र मन होकर विचरण करे ॥२२॥
भरत चक्रवर्ती ने एक अश्रद्धालु स्वर्णकार के हाथ में तेल से लबालब भरा कटोरा देकर अयोध्या के बाजारों में घूमने का आदेश दिया तथा इस प्रकार उसे जीवन में अनासक्ति साबधानी और एकाग्रता का पाठ पढ़ाया था, उसी प्रकार दयालु साधक भी विषयों तथा सांसारिक रागरंग, हिंसादि पाप एवं विकारों से मन को हटाकर एक मात्र प्राणिमात्र के प्रति समभाव, दयाभाव में एकाग्रचित्त होकर चले। जिनेश्वर की आज्ञा, अनुशासन : सिद्धान्त और शासन का महत्व
आत्मनिष्ठ सुख के अन्तर्द्रष्टा साधक के जीवन को अक्षय सुख की प्राप्ति के लिए जिनेन्द्र भगवन्तों की आज्ञा, सिद्धान्त, अनुशासन, शासन आदि के परिपालन का निर्देश करते हुए, अब अर्हतर्षि वैश्रमण कहते हैं
आणं जिणिद भणितं, सव्वसत्ताणुगामिणि ।। समचित्ताभिणंदित्ता, मुच्चंती सव्वबंधणा ॥२३॥ वोतमोहस्स दंतस्स, धीमंतस्स भासितं जए। जे जरा णाभिणंदंति, ते धुवं दुक्खभायिणो ॥२४॥ जेऽभिणंदति भावेण, जिणाऽणं तेसि सम्वधा। . कल्लाणाई सुहाइं च, रिद्धीओ ग य दुल्लहा ॥२५॥ मणं तधा रम्ममाणं, णाणाभावगुणोदयं । फुल्लं व पउमिणीसंडं, सुतित्थं गाहवज्जितं ॥२६॥ रम्मं मतं जिणिदाणं, णाणाभाव-गुणोदयं । कस्सेयं ण प्पियं होज्जा, इच्छियं व रसायणं ? ॥२७॥ अण्हातो व सरं रम्मं, वाहितो वा रुयाहरं । च्छुहितो व जहाऽऽहारं, रणे मूढो व बंदिय ॥२८॥ वहि सीताहतो वा वि, णिवायं वाणिलाहतो। तातारं वा भउद्विग्गो, अणत्तो वा धणागमं ॥२६।। गंभीरं सव्वतोभदं, हेतु - भंग - णयुज्जलं । सरणं पयतो मण्णे, जिणिद - वयणं तहा ॥३०॥ सारदं वा जलं सुद्ध, पुण्णं वा ससि-मंडलं । जच्चणि अघट्ट वा, थिरं वा मेतिणी-तलं ॥३१॥