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________________ अन्तर्दृष्टि साधक की वृत्ति-प्रवृत्ति २६१ साभाविय-गुणोपेतं भासते जिणसासणं । ससी-तारा-परिच्छिष्णं, सारदं वा नभंगण ॥३२॥ सवण्णुसासणं पप्प विण्णाणं पवियंभते । हिमवंत गिरि पप्पा तरुणं चारु कागमो ॥३३॥ सत्तं बुद्धी मतो मेधा गंभीरत्तं च वड्ढती । ओसधं दा सुई कंतं जज्जए बल-वीरियं ॥३४॥ पयंडस्स गरिदस्स कतार देसियस्स य । आरोग्गकारणो चेव आणाकोहो दुहावहो ॥३५॥ सासणं जं रिदाओ, कंतारे जे य देसगा। रोगुग्घातो य वेज्जातो, सव्वमेत हिए हियं ॥३६॥ • आणा-कोवो. जिणिवस्स सरण्णस्स जुतीमतो । संसारे दुक्खसंवाहे दुत्तारो सम्वदेहिणं ॥३७।। तेलोक्क-सार-गरुअं . धीमतो भासितं इमं । सम्म कारण फासेता, पुणो ज विरमे ततो ॥३८॥ बचिधो अधा जोधो, वम्मारूढो थिरायुधो। सीहणायं विमुचित्ता, पलायं तो ण सोभती ॥६। अगंधणे कुले जातो, जधा णागो महाविसो । मुचिता सविसं भूतो पियंतो जाति लाघवं ॥४०॥ जधा सप्पकुलोन्भूतो रमणिज्जं पि भोयणं । वंतं पुणो स भुजतो धिद्धिकारस्स भायणं ॥४१॥ एवं जिणिद-आणाए सल्लुद्धरणमेव य । णिग्गमो य पलित्ताओ सुहिओ सुहमेव तं ॥४२॥ अर्थात्-साधक प्राणिमात्र का अनुगमन करने वाली जिनेन्द्र-कथित आज्ञा को समचित्त (एकाग्रमन) से स्वीकार करके सभी बन्धनों से मुक्त होता है ॥२३।। . __ संसार में जो वीतमोह (वीतराग), दान्त एवं स्थितप्रज्ञ के वचन को स्वीकार नहीं करते, वे मनुष्य अवश्य ही दुःख के भागी होत हैं ॥२४।। जो व्यक्ति जिनेश्वर देवों की आज्ञा का सब प्रकार से भावपूर्वक अभिनन्दन करते हैं, उनके लिए कल्याण और सुख तो स्वतः प्राप्त हैं, ऋद्धियाँ भी उनके लिए दुर्लभ नहीं हैं ॥२५॥ जैसे नानाविध भावों और गुणों के उदय में रमण करता हुआ मन
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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