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अन्तर्दृष्टि साधक की वृत्ति-प्रवृत्ति २६ देविदा दाणविदा म गरिदा जे वि विस्सुता। सव्वसत्तंदयोथेतं मुणीसं पणमंति ते ॥२१॥ तम्हा पाणदयट्ठाए तेल्लपत्तधरो जधा।
एगग्गमणीभूतो दयत्थी विहरे मुणी ॥२२॥ अर्थात् ---मरने वाले से (अन्तिम समय में) पूछी जाए कि सागरपर्यन्त यह पृथ्वी दी जाए या जीवन दिया जाए ? तो बह (मरने वाला इन दोनों में से) जीवन ही चाहेगा ॥१५॥
पुत्र, पत्नी, धन, राज्य, विद्या, शिल्प, कला और गुण ये सभी पदार्थ प्राणियों के जीवित रहने पर ही, उनके जीवन को आनन्द दे सकते हैं ॥१६॥
इसलिए मनुष्य इन सभी प्रिय वस्तुओं को छोड़कर जीवन को महत्व देता है।
___ लोक में जीवों के द्वारा दूसरे जीवों को आहारादि इसलिए दिये जाते हैं कि वे अपनी प्राण रक्षा कर सकें और दुःख का निग्रह कर सकें ॥१७॥
- जैसे अपने शरीर में शस्त्र और अग्नि से आघात, और दाह होने (जल जाने) पर वेदना होती है, वैसे ही सभी देहधारियों को होती है ॥१८॥
___ इसलिए किसी भी प्राणी को शस्त्र से चोट पहुंचाना या अग्नि से जलाना नहीं चाहिए क्योंकि सभी प्राणियों की सुख-दुःख की अनुभूति हमारे जैसी ही है। अपनी अंगुलि में कोई सुई चुभोता है, तो पीड़ा होती है, वैसी ही पीड़ा दूसरे के शरीर में सुई चुभोने पर होती है।
प्राणियों को प्राणघात अप्रिय है, समस्त प्राणियों को दया प्रिय है। इस तत्व को भली-भांति समझ कर समस्त प्राणियों की हिंसा का त्याग करे ॥१९॥
समस्त प्राणियों को दया प्रिय है, हिंसा किसी को प्रिय नहीं है। इसलिए हिंसा का त्याग करना अनिवार्य है। अहिंसा के तत्व को भलीभाँति समझने वाला व्यक्ति प्रत्यक्ष और परोक्ष (परम्परा से होने वाली) हिंसाओं से अवश्य वचेगा।
___ अहिंसा समस्त प्राणियों को शान्ति देने वाली है। वह समस्त प्राणियों में (निहित आत्मगुण होने के कारण) अतीन्द्रिय परब्रह्म है ॥२०॥
समस्त प्राणियों के प्रति दयायुक्त मुनीश्वर को देवेन्द्र, दानवेन्द्र और ख्यातिप्राप्त नरेन्द्र भी प्रणाम करते हैं ॥२१॥