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________________ २८८ अमरदीप शुभ या अशुभ कर्मों का फल कब मिलेगा? इसी का समाधान करते हुए अहंतर्षि कहते हैं उन्विवारा जलोहंता तेतीए मतोट्टितं । जीवितं वा वि जीवाणं, जीवंति फलमंदिरं ॥१४॥ भूकम्प से, जल-समूह से, आग से या तृणसमूह से मरकर भी जीवों का पुनर्जीवन प्रारम्भ हो जाता है, (जीवनतत्त्व समाप्त नहीं होता). । फल का आश्रयस्थान (मन्दिर)-कर्म यदि विद्यमान है तो जीवों का जीवन चालू रहेगा ॥१३॥ किसी दुर्घटना से मरने के बाद स्थूलदृष्टि वाले लोग ऐसा सोचते हैं कि जीवन समाप्त हो गया, परन्तु जीवन का तत्त्व समाप्त नहीं हुआ। जीवन के नाटक का एक दृश्य समाप्त हुआ है, पूरा नाटक नहीं। दृश्य बदलते हैं, दृष्टा नहीं बदलता । एक जन्म में किये हुए पुण्य-पाप का फल अन्य जन्मों में भोगना पड़ता है। जन्म-मृत्यु की परम्परा जब तक कर्म हैं, जब तब तक चलती रहेगी। अहिंसा का पालन क्यों और कैसे ? सभी जीव जीना चाहते हैं, मृत्यु किसी को प्रिय नहीं है, इसलिए साधक को प्राणिहिंसा का पाप नहीं करना चाहिए, इसी विषय को युक्तिपूर्वक समझाते हुए अर्ह तर्षि कहते हैं देज्जा हि जो मरतस्स, सागरंतं वसुन्धरं। . जीवियं वा वि जो देज्जा, ‘जीवितं तु स इच्छती ॥१५॥ पुस-दारं धणं रज्ज, विज्जा सिप्पं कला गुणा। जीविते सति जीवाणं, जीविताय रती अयं ॥१६॥ आहारादि तु जीवाणं, लोए जीवाण दिज्जति । पाण-संधारणट्ठाय दुक्खणिग्गहणा तहा ॥१७॥ सत्थेण वहिणा वा वि खते दड्ढे व वेदणा । सए देहे जहा होति, एवं सम्वेसि देहिणं ॥१८।। पाणी य पाणिघातं .च, पाणिणं च पिया दया । सव्वमेतं विज्जाणित्ता, पाणिघातं विवज्जए ॥१६॥ . अहिंसा सव्वसत्ताणं सदा णिग्वेयकारिका । अहिंसा सव्वसत्तेसु परं बंभमणिदियं ॥२०॥
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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