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________________ क्षुद्र से विराट बनो ! २७५ नहीं, दूरवर्ती साधकों को भी अपना माने । सम्प्रदायों की संकीर्ण दीवारों को समाप्त कर अन्य सम्प्रदायों के लोगों को भी अपनाए । संघ में सभी साधु-श्रावकों का मनोबल समान नहीं हो सकता । कई साधु महीने तक की तपश्चर्या करते हैं, कई प्रतिदिन भोजन करते हैं । कोई स्थूल आचार में दृढ़ होते हैं, कोई विवेकपूर्वक मौलिक एवं सैद्धान्तिक दृष्टि से नाप-तौल कर चलते हैं, कोई ज्ञान के क्षेत्र में मन्द होते हैं, कोई तीव्र; अतः साधक अपनी विशाल, अनेकान्त एवं विचार-आचार सहिष्णु दृष्टि से सबका समन्वय करके चले । विचार की इसी विशालता को प्राप्त करने का संकल्प साधक के मन में हो । स्वयं कष्ट सहकर भी दूसरे साधकों की सेवा करें । कष्ट निवारणार्थ करुणां करें । गुणग्राहिता और आत्मीयता रखे । क्षुद्र हृदय न रखकर हृदय को उदार रखें । ज्ञान की अल्प किरण को विराट रूप दे । भारतीय संस्कृति के ज्योतिर्धर आचार्य अपने शिष्यों को विदा देते समय यही आशीर्वचन कहते थे , 'धर्मे ते धीयतां बुद्धिः, मनस्ते महदस्तु च 'हे शिष्य ! तुम किसी भी क्ष ेत्र में जाओ, तुम्हारी बुद्धि धर्म में स्थिर रहे, तुम्हारा मन महान् बने ।' साधक के सामने सदैव कर्मबन्धनों से तुम अपने साधक जीवन के लक्ष्य को भी छोटा (क्ष ुद्र) मत बनाओ । लक्ष्य को छोटा बनाना मन की क्षुद्रता और संकीर्णता का परिचायक है । सर्वथा मुक्ति - सर्व दुःखों से या मोक्षप्राप्ति का लक्ष्य होना चाहिए । परन्तु आज कई उच्च साधकों के समक्ष भी लक्ष्य स्पष्ट नहीं है। उनसे पूछा जाय कि आपकी साधना का लक्ष्य क्या है ? तो वे भी सच्चाई के साथ कुछ भी स्पष्ट नहीं कह सकते । क्योंकि बड़े से बड़े साधक का अन्तर्मन यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा और प्रभाव जैसी क्षुद्र बातों में उलझा हुआ है। मोक्ष और स्वर्ग की बातें करने बाले सिर्फ साधना का चमत्कार दिखाने में अटके हुए हैं । वे इहलौकिक ऋद्धिसिद्धि-लब्धि - उपलब्धि को पाने की धुन में ही अहर्निश एकाग्र रहते हैं । अधिकांश लोगों से पूछने पर इसी क्षुद्र लक्ष्य का संकेत मिलेगा - 'मोक्ष तो इस काल में मिलना कठिनतम है । बल्कि मोक्ष पंचमकाल में इस क्षेत्र के लोगों को मिल ही नहीं सकता । अब रहा देवलोक, वह भी किसने देखा है, स्वर्ग से आकर कोई कहता नहीं कि मैं स्वर्ग में हूं, सुखी हूं । इसीलिए हमें
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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