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________________ ४५ क्षुद्र से विराट बनो! धर्मप्रेमी श्रोताजनो! आज मैं जीवन के उस रहस्य को प्रकट कहना चाहता हूं, जिसके कारण मनुष्य, विशेषतया साधक, ज्यों-ज्यों अधिकार, पद, सत्ता या सम्पत्ति में उच्च होता जाता है, त्यों-त्यों क्षुद्र होता जाता है, उसके मन में संकुचितता आ जाती है । इसीलिए सोम अर्हतर्षि जीवन के इस महान रहस्य का उद्घाटन करते हुए बयालीसवें अध्ययन में कहते हैं अप्पेण बहुमसेज्जा जेट्ठ-मज्झिम-कणिठें। हिरवज्जे ठितस्स तु णो कप्पति पुणरवि सावज्ज सेवित्तए। सोमेण अरहता इसिणा बुइतं । 'साधक ज्येष्ठ, मध्यम या कनिष्ठ (किसी भी पद पर हो, वह (विचार या ज्ञानक्षेत्र में) अल्प से अधिक पाने (आगे बढ़ने) की चेष्टा करे । जो साधक निरवद्य में स्थित हो गया है, उसे (उससे आगे निरवद्यतर में प्रवेश करना चाहिए किन्तु) सावध का पुनः सेवन करना कल्पनीय नहीं है, इस प्रकार सोम अर्हतषि ने कहा।' साधक किसी भी रूप में हो, वह चाहे आचार्य हो, उपाध्याय हो, स्थविर हो, या लघु मुनि के रूप में ही क्यों न हो, वह अल्प से बहुत्व की ओर ही सदा प्रस्थान करें। वह क्षुद्र से विराट बनने का प्रयत्न करे । वैदिक ऋषि ने भी यही कहा 'यो वै भूमा तत्सुखम्, नाऽल्पे सुखमस्तीति ।' जो विराट है, विशाल है, वही सुखरूप है, अल्प में सुख नहीं है । तात्पर्य यह है कि साधक मन से भी विराट बने। तंगदिली दूर करे । 'मैं' और मेरे' के क्षुद्र घेरे को तोड़कर विराट बने । अपने निकटवर्ती साधकों को
SR No.002474
Book TitleAmardeep Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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