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साधन को जीविका का साधना मत बनाओ! २७३ कर्महनन के लिए भोजन करने वाले अथवा प्रासुक भोजन करने वाले उस दोषरहित साधक के लिए लाभ सुलभ है ॥१६॥
जैसे कपोत, कपिजल पक्षी और गायें अपने प्रातः भोजन के लिए जाते हैं, उसी प्रकार साधु भी गोचरी के लिए जाए। वह भिक्षा के समय अधिक न बोले और इच्छित आहार की प्राप्ति न होने पर मन में जले नहीं ॥१७॥
निष्कर्ष यह है कि साधु शुद्ध भिक्षाचरी से अपना जीवन-निर्वाह करे । गृहस्थ के घरों में न तो स्वयं का गोत्रकुल आदि के रूप में परिचय दे और न ही उनके कुलों के खास परिचय में उतरे। स्वयं भी अज्ञात रहे और दूसरों के विषय में भी ज्ञात न करे। वह यही देखे कि आहार शुद्ध है या नहीं ? शुद्ध विधिपूर्वक दिया जा रहा है या नहीं ? शुद्ध आहार के लिए वह किसी एक घर या सम्पन्न घरों से नहीं, किन्तु उच्च-नीच-मध्यम सभी कुलों से भिक्षाचरी करे। गृहस्थदशा के परिचय के आधार पर वह साधना में आगे नहीं बढ़ सकेगा, कदम-कदम पर उसे मोह घेर लेगा। उसकी साधना बहिर्मुखी बन जाएगी। तथा पहले बताई हुई अशुद्ध आजीविकाओं को छोड़कर जीवन निर्वाह के लिए निर्दोष एषणीय आहार ले । भिक्षाचर्या के समय शान्त, अनुद्विग्न और अक्षुब्ध रहे तथा लाभ और अलाभ में समभाव रखे । यही मुनि जीवन की शुद्ध साधना है, जिससे कर्मों का क्षय करके वह एक दिन सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो सकेगा।